जब यहां मुंसिफ भी तुम रहबर तुम्हीं, तो सुर्ख कैसे हो गया अखबार कल का, सलीम बस्तवी अज़ीज़ी,

अनुराग लक्ष्य, 24 जनवरी
मुम्बई संवाददाता ।
वैसे तो शायरी को हमेशा महबूब से बातें करने के नज़रिए से ही देखा गया है लेकिन सच्ची शायरी हमेशा वही मानी जाती है, जो हालात ए हाज़रा को अपने अंदर समेट कर समायीन और शोरोताओं तक पहुंचती है। आज कुछ इसी अंदाज की एक गजल आपकी खिदमत में लेकर हाज़िर हूं, और आपकी मुहब्बतों का तालिब भी ।
1/ क्या बताएं आपका किरदार कल का
शर्म आती है जो था मेआर कल का ।
2/ जब यहां मुंसिफ भी तुम, रहबर तुम्हीं
तो सुर्ख कैसे हो गया अख़बार कल का ।
3/ जिस तरह तुमने चलाया है नेज़ाम
नोच डालेगा तुम्हें बाज़ार कल का ।
4/ आ गया है वक्त तुम भी देखना
इक नया होगा यहां सरदार कल का ।
5/ कल यही जनता मुक़ाबिल आएगी
याद रखना तुम यह अपना वार कल का ।
6/ है सियासत क्या बताऊंगा तुम्हें
हो गया सपना अगर सरकार कल का ।
7/ ज़िंदगी खुशबू से पुर होगी ,सलीम,
कर रहा हूं तुमसे यह इक़रार कल का ।
,,,,,,,,,,,,, सलीम बस्तवी अज़ीज़ी,,,,,,,

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