ग़ज़ल
कवि होने का धर्म निभाना।
फ़र्ज़ कभी ये भूल न जाना।।
माँग नहीं है आज समय की।
सिर्फ़ प्रणय के गीत सुनाना।।
मक्कारी मिथ्या भाषण पर।
शब्दों की तलवार चलाना।।
ख़ार मिले तो मत घबराना।
कुंठाओं से बाहर आना।।
स्वार्थ किनारे रखकर जग को।
बस सच की तस्वीर दिखाना।।
आंखों में निर्भय सागर ले।
अंगारों पर पाँव जमाना।।
प्रतिभा गुप्ता ‘प्रबोधिनी’