प्रश्न बदलें, दृष्टिकोण बदलें

*प्रश्न बदलें, दृष्टिकोण बदलें – शायद किसी की ज़िंदगी बदल जाए*

“तू बहुत पतली हो गई है”,

“चेहरा डल लग रहा है”,

“कहीं स्ट्रेस में तो नहीं?”

“कितने डार्क सर्कल हो गए हैं”

 

ये वाक्य आजकल के आम मुलाकातों का हिस्सा बन चुके हैं। जैसे ही हम किसी से मिलते हैं, शरीर, रंग, वजन या थकान को लेकर कोई ना कोई ‘टिप्पणी’ तैयार होती है।

मगर हम यह शायद ही पूछते हैं:

“कैसी हो?”,

“सब ठीक है ना?”,

“मन ठीक चल रहा है?”,

“कुछ ज़रूरत तो नहीं?”

हम इंसान देखना भूल गए हैं

 

हम चेहरे पर मुस्कान ढूँढते हैं, लेकिन उसके पीछे छुपी थकावट, तकलीफ़ या अकेलापन देखने की कोशिश नहीं करते।

हम शरीर के आकार, त्वचा के रंग, और बालों की चमक को जीवन की ‘खुशहाली’ का मानक मान बैठे हैं।

 

कहीं हमारी नजरें इंसान को इंसान नहीं, एक ‘तौलने’ योग्य पैमाने की तरह तो नहीं देख रही?

शरीर नहीं, संवेदना पूछिए

हो सकता है जिसे आप “मोटी हो गई हो” कह रहे हैं, वो महीनों से थायरॉइड या अवसाद से जूझ रही हो।

जिसे आप “डार्क लग रही हो” कहकर टोकते हैं, वो किसी मानसिक संकट से गुजर रही हो।

जिसके बारे में कहते हैं “तेरा ग्लो चला गया”, शायद उसने रात-रात भर किसी अपने की देखभाल की हो, या खुद नींद से वंचित रही हो।

 

हमारा एक ‘तथाकथित सामान्य’ सवाल उनके आत्मविश्वास को चुपचाप तोड़ देता है। और ये घाव अंदर से चुपचाप रिसते रहते हैं।

 

अगली बार किसी से मिले तो ये सवाल पूछकर देखिए:

 

“कैसी हो?”

“मन शांत है?”

“कुछ ऐसा है जो तुम्हें परेशान कर रहा हो?”

“मैं कुछ मदद कर सकता/सकती हूँ?”

 

शब्द वही हैं, पर मंशा में अपनापन है। यह अपनापन ही उस व्यक्ति के लिए संजीवनी बन सकता है, जो भीतर ही भीतर लड़ रहा हो। अपनों को थोड़ा गले लगाकर मिलिए

 

शब्दों की ताकत को समझिए

 

शब्द तलवार बन सकते हैं, और मरहम भी। यह हमारे चुनाव पर निर्भर करता है। समाज में मानसिक स्वास्थ्य को लेकर आज भी संकोच और चुप्पी है, और हमारे सवाल उस चुप्पी को या तो तोड़ सकते हैं, या और मजबूत कर सकते हैं।

 

अगर हम अपने सवालों को थोड़ा सा संवेदनशील बना लें — शरीर के आकार से हटकर आत्मा की थकावट को समझने लगें — तो शायद कोई टूटने से बच जाए।

 

बदलाव की शुरुआत हमारे लहजे से होती है

 

दुनिया में बदलाव लाने के लिए कोई बड़ी क्रांति की ज़रूरत नहीं होती। शुरुआत बस “तू ठीक है ना?” से की जा सकती है।

 

क्यों न आज से हम ठान लें —

टिप्पणी नहीं, समझदारी करेंगे। आलोचना नहीं, अपनापन देंगे।

क्योंकि कभी-कभी एक सही सवाल किसी की पूरी ज़िंदगी की दिशा बदल सकता है।

 

धन्यबाद

ये लेखिका के अपने विचार हैं…

नेहा वार्ष्णेय

दुर्ग (छत्तीसगढ़)