विश्व मजदूर दिवस विशेष पर कविता
शीर्षक – हाँ, वही मजदूर हूँ मैं!
विधा – काव्य
माना एक मकान
ईंट, सीमेंट, चूने से बनता
किंतु उसमें लगा
परिश्रम हूँ मैं;
भूख–प्यास को भूल मैं अपनी
अथक परिश्रम करता ;
दो रोटी के खातिर
जी–जान से समझौता करता
क़दम से क़दम मिला के समय से
दिन–रात लगा मैं रहता !
ठंड, ताप, लू से लड़कर
ख़ुद से भारी वजन उठाता,
लड़खड़ाकर गिर जाता कई बार
फिर स्वयं उठकर चलता हूँ ;
बिना रुके ठोकरों से लड़
निज पसीने की
एक–एक बूंद से सींच
महल खड़ा मैं करता हूँ !
मैं स्वयं के सारे
सुख–शांति को भूल
दो पैसों के लिए
अथक कड़ी मेहनत करता हूँ ,
हाँ, ख़ुद एक टूटी–फूटी
झोपड़ी में रहकर
एक नहीं सौ मंजिल तक का
बिल्डिंग,महल खड़ा करता हूँ !
एक कुशल शिल्पकार
इस संसार के लिए
निस्वार्थ सदा समर्पित
हर मकान की नींव मैं ही,
हाँ, वही मजदूर हूँ मैं!
स्वलिखित मौलिक रचना
प्रीती द्विवेदी (प्रीती देवी)
चित्रकूट, उत्तर प्रदेश