चन्द्रशेखर आजाद देश के महान बलिदानी एवं युवाओं के प्रेरक हैं”

ओ३म्
“चन्द्रशेखर आजाद देश के महान बलिदानी एवं युवाओं के प्रेरक हैं”
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शहीद चन्द्रशेखर आजाद जी का जन्म २३ जुलाई १९०६ को तथा बलिदान २७ फरवरी १९३१ को हुआ था। वह भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के क्रान्तिकारी व स्वतंत्रता सेनानी थे। चन्द्रशेखर जी शहीद राम प्रसाद बिस्मिल व शहीद भगत सिंह के समान क्रान्तिकारियों के प्रमुख मित्रों व साथियों में से थे।

सन् १९२२ में गाँधीजी द्वारा असहयोग आन्दोलन को अचानक बन्द कर देने के कारण उनकी विचारधारा में बदलाव आया और वे क्रान्तिकारी गतिविधियों से जुड़ कर हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य बन गये। इस संस्था के माध्यम से उन्होंने ऋषि दयानन्द के भक्त एवं क्रान्तिकारी राम प्रसाद बिस्मिल जी के नेतृत्व में पहले ९ अगस्त १९२५ को काकोरी काण्ड किया और फरार हो गये। इसके पश्चात् सन् १९२७ में बिस्मिल जी के साथ ४ प्रमुख साथियों के बलिदान के बाद उन्होंने उत्तर भारत की सभी क्रान्तिकारी पार्टियों को मिलाकर एक करते हुए हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया तथा भगत सिंह के साथ लाहौर में लाला लाजपत राय की मौत का बदला सॉण्डर्स की हत्या करके लिया एवं दिल्ली पहुँच कर असेम्बली बम काण्ड को अंजाम दिया।

चन्द्रशेखर आजाद का जन्म भाबरा गाँव (वर्तमान अलीराजपुर जिला) में २३ जुलाई सन् १९०६ को हुआ था। उनके पूर्वज बदरका (वर्तमान उन्नाव जिला) बैसवारा से थे। आजाद के पिता पण्डित सीताराम तिवारी संवत् १८५६ में अकाल के समय अपने पैतृक निवास बदरका को छोड़कर पहले कुछ दिनों मध्य प्रदेश, अलीराजपुर रियासत में नौकरी करते रहे फिर जाकर भाबरा गाँव, में बस गये। यहीं बालक चन्द्रशेखर का बचपन बीता। उनकी माँ का नाम जगरानी देवी था। आजाद का प्रारम्भिक जीवन आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में स्थित भाबरा गाँव में बीता अतएव बचपन में आजाद ने भील बालकों के साथ खूब धनुष बाण चलाये। इस प्रकार उन्होंने निशानेबाजी बचपन में ही सीख ली थी। बालक चन्द्रशेखर आजाद का मन अब देश को आजाद कराने के अहिंसात्मक उपायों से हटकर सशस्त्र क्रान्ति की ओर मुड़ गया। उस समय बनारस क्रान्तिकारियों का गढ़ था। वह मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के सम्पर्क में आये और क्रान्तिकारी दल के सदस्य बन गये। क्रान्तिकारियों का वह दल हिन्दुस्तान प्रजातन्त्र संघर्ष के नाम से जाना जाता था।

सन् १९१९ में हुए अमृतसर के जलियांवाला बाग नरसंहार ने देश के नवयुवकों को झकझोर दिया था। चन्द्रशेखर जी उस समय पढाई कर रहे थे। जब गांधीजी ने सन् १९२१ में असहयोग आन्दोलन का फरमान जारी किया तो वह आग ज्वालामुखी बनकर फूट पड़ी और तमाम अन्य छात्रों की भाँति चन्द्रशेखर जी भी सडकों पर उतर आये। अपने विद्यालय के छात्रों के जत्थे के साथ इस आन्दोलन में भाग लेने पर वे पहली बार गिरफ्तार हुए और उन्हें १५ बेतों की सजा मिली।

चंद्रशेखर आजाद ने एक निर्धारित समय के लिए झांसी को अपना गढ़ बनाया। झांसी से पंद्रह किलोमीटर दूर ओरछा के जंगलों में वह अपने साथियों के साथ निशानेबाजी किया करते थे। अचूक निशानेबाज होने के कारण चंद्रशेखर आजाद दूसरे क्रांतिकारियों को प्रशिक्षण देने के साथ-साथ पंडित हरिशंकर ब्रह्मचारी के छ्द्म नाम से बच्चों के अध्यापन का कार्य भी करते थे। वह धिमारपुर गांव में अपने इसी छद्म नाम से स्थानीय लोगों के बीच बहुत लोकप्रिय हो गए थे। झांसी में रहते हुए चंद्रशेखर आजाद ने गाड़ी चलानी भी सीख ली थी।

असहयोग आन्दोलन के दौरान जब फरवरी १९२२ में (चैरी चैरा) की घटना के पश्चात् बिना किसी से पूछे (गाँधीजी) ने आन्दोलन वापस ले लिया तो देश के तमाम नवयुवकों की तरह आजाद का भी कांग्रेस से मोह भंग हो गया और पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेशचन्द्र चटर्जी ने १९२४ में उत्तर भारत के क्रान्तिकारियों को लेकर एक दल हिन्दुस्तानी प्रजातान्त्रिक संघ (एच०आर०ए०) का गठन किया। चन्द्रशेखर आजाद भी इस दल में शामिल हो गये। इस संगठन ने जब गांव के अमीर घरों में डकैतियाँ डालीं, ताकि दल के लिए धन जुटाने की व्यवस्था हो सके, तो यह तय किया गया कि किसी भी स्त्री के ऊपर हाथ नहीं उठाया जाएगा। एक गाँव में पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में डाली गई डकैती में जब एक महिला ने आजाद का पिस्तौल छीन लिया तो अपने बलशाली शरीर के बावजूद आजाद ने अपने सिद्धान्तों के कारण उस पर हाथ नहीं उठाया। इस डकैती में क्रान्तिकारी दल के आठ सदस्यों पर, जिसमें आजाद और बिस्मिल भी शामिल थे, पूरे गाँव ने हमला कर दिया। बिस्मिल जी ने मकान के अन्दर घुसकर उस महिला के कसकर चाँटा मारा, पिस्तौल वापस छीनी और आजाद को डांटते हुए खींचकर बाहर लाये। इसके बाद दल ने केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को ही लूटने का फैसला किया। १ जनवरी १९२५ को दल ने समूचे हिन्दुस्तान में अपना बहुचर्चित पर्चा ‘द रिवोल्यूशनरी’ (क्रान्तिकारी) बाँटा जिसमें दल की नीतियों का खुलासा किया गया था। इस पत्रक में सशस्त्र क्रान्ति की चर्चा की गयी थी। पत्रक के लेखक के रूप में विजयसिंह का छद्म नाम दिया गया था। शचींद्रनाथ सान्याल इस पर्चे को बंगाल में पोस्ट करने जा रहे थे तभी पुलिस ने उन्हें बाँकुरा में गिरफ्तार करके जेल भेज दिया। एच०आर०ए० के गठन के अवसर से ही इन तीनों प्रमुख नेताओं – बिस्मिल, सान्याल और चटर्जी में इस संगठन के उद्देश्यों को लेकर मतभेद था।

इस संघ की नीतियों के अनुसार ९ अगस्त १९२५ को काकोरी काण्ड को अंजाम दिया गया। जब शाहजहाँपुर में इस योजना के बारे में चर्चा करने के लिये मीटिंग बुलायी गयी तो दल के एक मात्र सदस्य अशफाक उल्ला खाँ ने इसका विरोध किया था। उनका तर्क था कि इससे प्रशासन उनके दल को जड़ से उखाड़ने पर तुल जायेगा और ऐसा ही हुआ। अंग्रेज चन्द्रशेखर आजाद को तो पकड़ नहीं सके पर अन्य सर्वोच्च कार्यकर्ताओं – पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्ला खाँ एवं ठाकुर रोशन सिंह को १९ दिसम्बर १९२७ तथा उससे २ दिन पूर्व राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी को १७ दिसम्बर १९२७ को फाँसी पर लटकाकर मार दिया गया। सभी प्रमुख कार्यकर्ताओं के पकडे जाने से इस मुकदमे के दौरान दल निष्क्रिय ही रहा। एक बार बिस्मिल तथा योगेश चटर्जी आदि क्रान्तिकारियों को छुड़ाने की योजना भी बनी जिसमें आजाद जी के अलावा भगत सिंह जी भी शामिल थे लेकिन किसी कारणवश यह योजना पूरी न हो सकी।

क्रान्तिकारियों को फाँसी और १६ को कड़ी कैद की सजा के बाद चन्द्रशेखर आजाद ने उत्तर भारत के सभी कान्तिकारियों को एकत्र कर ८ सितम्बर १९२८ को दिल्ली के फीरोज शाह कोटला मैदान में एक गुप्त सभा का आयोजन किया। इसी सभा में भगत सिंह को दल का प्रचार-प्रमुख बनाया गया। इसी सभा में यह भी तय किया गया कि सभी क्रान्तिकारी दलों को अपने-अपने उद्देश्य इस नयी पार्टी में विलय कर लेने चाहिये। पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात् एकमत से समाजवाद को दल के प्रमुख उद्देश्यों में शामिल करते हुए हिन्दुस्तान रिपब्लिकन ऐसोसियेशन का नाम बदलकर हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसियेशन रखा गया। चन्द्रशेखर आजाद ने सेना-प्रमुख (कमाण्डर-इन-चीफ) का दायित्व सम्हाला। इस दल के गठन के पश्चात् एक नया लक्ष्य निर्धारित किया गया – हमारी लड़ाई आखरी फैसला होने तक जारी रहेगी और वह फैसला है जीत (देश की आजादी) या मौत।

17 दिसम्बर, 1928 को चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह और राजगुरु ने संध्या के समय लाहौर में पुलिस अधीक्षक के दफ्तर को जा घेरा। ज्यों ही जे.पी. सांडर्स अपने अंगरक्षक के साथ मोटर साइकिल पर बैठकर निकला, पहली गोली राजगुरु ने दाग दी, जो साडंर्स के मस्तक पर लगी और वह मोटर साइकिल से नीचे गिर पड़ा। भगतसिंह ने आगे बढ़कर चार-छह गोलियाँ और दागकर उसे बिल्कुल ठंडा कर दिया। जब सांडर्स के अंगरक्षक ने पीछा किया तो चन्द्रशेखर आजाद ने अपनी गोली से उसे भी समाप्त कर दिया। लाहौर नगर में जगह-जगह परचे चिपका दिए गए कि लाला लाजपतराय की मृत्यु का बदला ले लिया गया। समस्त भारत में क्रान्तिकारियों के इस कदम को सराहा गया।

चन्द्रशेखर आजाद के ही सफल नेतृत्व में भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को दिल्ली की केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट किया। यह विस्फोट किसी को भी नुकसान पहुँचाने के उद्देश्य से नहीं किया गया था। विस्फोट अंग्रेज सरकार द्वारा बनाए गए काले कानूनों के विरोध में किया गया था। इस काण्ड के फलस्वरूप भी क्रान्तिकारी बहुत जनप्रिय हो गए। केन्द्रीय असेंबली में बम विस्फोट करने के पश्चात भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने स्वयं को गिरफ्तार करा लिया। वे न्यायालय को अपना प्रचार-मंच बनाना चाहते थे।

चन्द्रशेखर आजाद की इच्छा के विरुद्ध जब भगत सिंह एसेम्बली में बम फेंकने गये तो पं. चन्द्रशेखर आजाद पर दल की पूरी जिम्मेवारी आ गयी। साण्डर्स वध में भी उन्होंने भगत सिंह का साथ दिया और बाद में उन्हें छुड़ाने की पूरी कोशिश भी की। आजाद की सलाह के खिलाफ जाकर श्री यशपाल ने २३ दिसम्बर १९२९ को दिल्ली के नजदीक वायसराय की गाड़ी पर बम फेंका तो इससे आजाद क्षुब्ध थे क्योंकि इसमें वायसराय तो बच गया था पर कुछ और कर्मचारी मारे गए थे। आजाद को २८ मई १९३० को भगवती चरण वोहरा की बम-परीक्षण में हुई शहादत से भी गहरा आघात लगा था। इसके कारण भगत सिंह को जेल से छुड़ाने की योजना भी खटाई में पड़ गयी थी। भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु की फाँसी रुकवाने के लिए आजाद ने दुर्गा भाभी को गांधीजी के पास भेजा जहाँ से उन्हें कोरा जवाब दे दिया गया था। आजाद ने अपने बलबूते पर झाँसी और कानपुर में अपने अड्डे बना लिये थे। झाँसी में मास्टर रुद्र नारायण, सदाशिव मलकापुरकर, भगवानदास माहौर तथा विश्वनाथ वैशम्पायन थे जबकि कानपुर में पण्डित शालिग्राम शुक्ल सक्रिय थे। शालिग्राम शुक्ल को १ दिसम्बर १९३० को पुलिस ने आजाद से एक पार्क में मिलने जाते वक्त शहीद कर दिया था।

क्रान्तिकारी दल (एच०एस०आर०ए०) द्वारा किये गये साण्डर्स-वध और दिल्ली एसेम्बली बम काण्ड में फाँसी की सजा पाये तीन अभियुक्तों- भगत सिंह, राजगुरु व सुखदेव ने अपील करने से साफ मना कर ही दिया था। अन्य दण्ड प्राप्त अभियुक्तों में से सिर्फ ३ ने ही प्रिवी कौन्सिल में अपील की। ११ फरवरी १९३१ को लन्दन की प्रिवी कौन्सिल में अपील की सुनवाई हुई। इन अभियुक्तों की ओर से एडवोकेट प्रिन्ट ने बहस की अनुमति माँगी थी किन्तु उन्हें अनुमति नहीं मिली और बहस सुने बिना ही अपील खारिज कर दी गयी। चन्द्रशेखर आजाद ने मृत्यु दण्ड पाये तीनों प्रमुख क्रान्तिकारियों की सजा कम कराने का काफी प्रयास किया। वे उत्तर प्रदेश की हरदोई जेल में जाकर गणेशशंकर विद्यार्थी से मिले। विद्यार्थी जी से परामर्श कर वे इलाहाबाद गये और २० फरवरी को जवाहरलाल नेहरू से उनके निवास आनन्द भवन में भेंट की। आजाद ने पण्डित नेहरू से यह आग्रह किया कि वे गांधी जी पर लॉर्ड इरविन से इन तीनों की फाँसी को उम्र- कैद में बदलवाने के लिये जोर डालें।

अल्फ्रेड पार्क में पं. चन्द्रशेखर आजाद जी अपने एक मित्र सुखदेव राज से मन्त्रणा कर ही रहे थे तभी सी०आई०डी० का एस०एस०पी० बाबर जीप से वहाँ आ पहुँचा। उसके पीछे-पीछे भारी संख्या में कर्नलगंज थाने से पुलिस भी आ गयी। दोनों ओर से हुई भयंकर गोलीबारी में आजाद जी को वीरगति प्राप्त हुई। आजाद जी पुलिस की गोली से नहीं अपितु उन्होंने अपनी पिस्तौल से ही अपने आप को गोली मार दी थी। ऐसा ही उनका संकल्प भी था। यह दुखद घटना २७ फरवरी १९३१ के दिन घटित हुई और हमेशा के लिये इतिहास में दर्ज हो गयी।

पुलिस ने बिना किसी को इसकी सूचना दिये चन्द्रशेखर आजाद का अन्तिम संस्कार कर दिया था। जैसे ही आजाद जी के बलिदान की खबर जनता को लगी सारा इलाहाबाद अलफ्रेड पार्क में उमड पडा। जिस वृक्ष के नीचे आजाद शहीद हुए थे लोग उस वृक्ष की पूजा करने लगे। वृक्ष के तने के इर्द-गिर्द झण्डियाँ बाँध दी गयीं। लोग उस स्थान की माटी को कपडों में शीशियों में भरकर ले जाने लगे। समूचे शहर में आजाद के बलिदान की खबर से जबरदस्त तनाव हो गया। शाम होते-होते सरकारी प्रतिष्ठानों पर हमले होने लगे। लोग सडकों पर आ गये थे। एक बार हमें इलाहाबाद जाने का अवसर मिला। हम अल्फ्रेड पार्क भी गये और उस स्थान को देखा जहां साढ़े चौबीस वर्ष के हमारे युवा क्रान्तिकारी आजाद जी शहीद हुए थे। समूचे देश पर आजाद जी का ऋण है। वह शहीद होकर अमर हो गये हैं। अपने देश प्रेम की भावनाओं और अपना बलिदान देकर उन्होंने निश्चय ही अमर गति को प्राप्त किया है। देशवासियों द्वारा यह ऋण कभी चुकाया नही जा सकता। हमने इस लेख की सामग्री इण्टरनेट से प्राप्त की है। इसमें योगदान इसी माध्यम का है। उनका आभार है। ओ३म् शम्।

-प्रस्तुतकर्ता मनमोहन कुमार आर्य