✍🏻 डॉ. सत्यवान सौरभ
छूट गया जो एकाकी पथ पर,
था कभी आँगन का दीप,
अब वह अनचाहा अजनबी है,
जिसकी प्रतीक्षा नहीं समीप।
घर की धूप नहीं थमती अब,
उसके नाम की चौखट पर,
माँ के आँचल की छाया भी
किरणों-सी बिखरी तट पर।
रिश्ते अब नहीं थामते हाथ,
सिर्फ उत्सवों में मुस्काते हैं,
जिस पीड़ा में साँझ सिसकती है,
उसे सब मौन गंवाते हैं।
दरकते शब्दों के नीचे
कुछ कोरे व्यवहार बचे हैं,
बाँट के मन के आँगन को
अब सम्बन्ध नहीं, हिस्से बचे हैं।
माँ के अधरों पर आशीष नहीं,
केवल संयम की परछाई है,
और पिता की आँखों में सपने नहीं,
एक बुझती सी गहराई है।
जिस घर में भावों की पूजा थी,
अब तर्कों की दीवारें हैं,
हर रिश्ता एक समीकरण है,
हर आलिंगन में धारें हैं।
– डॉo सत्यवान सौरभ,
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी,
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