भावों और संवेदनाओं की व्यंजनात्मक अभिव्यक्ति: हिमकिरीट

जब मनुष्य में संपूर्ण सृष्टि के प्रति कृतज्ञता का भाव सर्वोपरि हो जाता है, तब “हिमकिरीट” जैसे संग्रह रचे जाते हैं। भूपेश प्रताप सिंह जी की 86 कविताओं, कुछ मुक्तक और दोहों का यह संग्रह कुछ ऐसे ही भावों की अभिव्यक्ति है।

माखनलाल चतुर्वेदी के प्रसिद्ध कविता संग्रह का नाम “हिमकिरीटिनी” था। हिमकिरीट का शाब्दिक अर्थ बर्फ का मुकुट है। जब यह भारत जैसे देश के सिर पर विराजता है तो उसकी सुंदरता और महानता का प्रतीक बन जाता है, मगर जब इस मनुष्य अपने सिर पर स्वयं धारण करता है, उसकी भावनाएँ और संवेदनाएँ हिम-सी बन जाती हैं। वह अपने कर्तव्यों का मात्र कर्ता नहीं रहता, वह दंभी बन सृष्टि के हर उपादान को हेय दृष्टि से देखने लगता है। कवि ने अपने संग्रह में मनुष्य की मनुष्यता को बचाए रखने जैसे भावों को विभिन्न विषयों में उठाया है।

 

अरे! यहाँ तो चिंकी भी है, कल ही देखा था कन्या पूजन में, इसकी पूजा होते। देवी को मजदूरनी बन जाना एक झटके में नहीं देख सकता मैं क्योंकि मैं इंसान नहीं हूँ।

 

कवि ने प्रेम को मानस मणि का आधार बनाकर, निष्काम कर्म की ओर बढ़ने को स्वीकार किया है। उनके अर्थ तब और अधिक शब्दों-चित्रों में उभरने लगते हैं, जहाँ दूसरे के विश्राम में सुख अनुभूत होने लगता है –

“यह विश्राम दिव्य है। सब मासूम दिखेंगे नवजात शिशु की तरह खुल जाएगा रहस्य अभेद का शांति कल आ गया।”

कवि मन हर उस संबंध से दूरी बनाना चाहता है, जहाँ पर कर्मों में व्यापार हो। धन और यश की अति चाहना जब संवादहीनता और संवेदनहीनता की ओर जब बढ़ जाए, ऐसी संबंधों से दूरी ही मन को शांत रख सकती है –

“मेरे मन में बार-बार घूम रहा है एक प्रश्न चाक की तरह क्या कभी मैं बात कर सकूँगा किसी को अपना मानकर।”

जहाँ एक और दूरी बनाने की चाहना है वही हर प्राणी के लिए बहुत-सी चिंताएँ भी हैं –

“जीवन में झंझावातों का खेल अनूठा है, देख रहा हो हर प्राणी कुछ रूठा – रूठा है ,संबंधों में यह मायूसी बहुत सालती है, कच्ची नींद टूट जाए जो नींद उचटती है।

 

उठो देश के सेवाव्रतियों, जग उठे, विजय निश्चय कर लो, आज नई ज्योति भरो, मत कहो मुझे न होगा, जब अँधेरा प्रिय लगे जैसी अनेकों कविताओं में कवि व्यक्ति के हर कर्म के पीछे छिपे मंतव्य को दर्शाने की चेष्टा करते हैं। इसे समझने के लिए चैतन्यता का भाव का होना परमावश्यक है।

छोटे से छोटे जीव के समर्पण से प्रकृति का श्रृंगार हुआ है। उसे छिन्न-भिन्न करने वाले हम हैं। यही जीवन की मार्मिकता-सी जुड़ा पक्ष है, जिसे कवि मन अपनी अधिकांश कविताओं में महसूस करता हुआ दिखता है।

बलात्कार जैसे घिनौने कृत्य को कवि ने बहुत ही उत्कृष्टता से चित्रित करने का प्रयास किया है –

अचानक उपवन में भेड़िया आया कर गया लहूलुहान उस कली को भर गया वातावरण को दुर्गंध से उस दिन हुआ यह था कि माली सो गया था।

 

यहाँ माली का सोना पाठक के सामने अनगिनत प्रश्न खड़े कर देता है। इस माली को अनेकों रूप में जाना और समझा जा सकता है। ऐसे प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए पाठक मन इतना बेचैन हो उठता है कि वह अपनी मानवीय संवेदना पर ही प्रश्न लगा बैठता है। “जब माली सो गया” जैसी कई कविताएँ बार-बार पढ़े जाने के लिए विवश करती हैं।

कवि विभिन्न आवाहन के द्वारा सचेतता के उसे बीज को बोना चाहते हैं, जहाँ पर अपनी स्वार्थ से ऊपर उठकर मनुष्य परहित को अपने जीवन का उद्देश्य बना ले। जीवन राग, मौन मत बनो जागो बाले,बरसों मरुधर में जलधर! जैसी संग्रह की अनेकों कविताएं इन्हीं भावों से जुड़ी हैं।

मैं स्तब्ध हूं कि वह आमद हैं दुनिया को शिकारगाह बनाने पर।

 

प्रकृति के असंतुलन से कितने जीव जंतु प्रभावित हुए हैं, अगर मनुष्य इस बात को महसूस कर पाए, तो वह सँभल जाए।

बता कोकिल! क्यों जला तेरा गला? मौन साधे स्वर छिपाए वेदना के गीत गाती..।

 

विभिन्न विमर्शों से जुड़ी कविताओं में स्त्री विमर्श से जुड़ी कविता बहुत प्रभावी और बेहतरीन है। इसके हरेक छंद में स्त्री की पीड़ा परत दर परत खुलकर, बहुत कुछ सोचने पर विवश करती है।

 

“विषघट में तुम अमृत सिंधु – सी फिर भी तिल तिल मरती आँसू के बल से नयनों में दबा अंगारे रोष-क्रोध के कल्याणी बन प्रेम विवश ओले के तन-सा घुलती।”

कविताओं में जंगलों के खत्म होने की पीड़ा, भारतीयता पर अभिमान या मनुष्य में भारतीयता के इस भाव के कहीं टूटने की पीड़ा भी है। आतंकवाद से आहत होते, लोगों की मन:स्थिति का चित्रण भी है, तो कहीं कविताओं में स्वयं में स्वयं की खोज भी है। जीवन का यथार्थ भी है

जो जहाँ जन्मते हैं, धीरे धीरे बढ़ते हैं… फिर ऐसे घटते हैं कि घटते ही जाते हैं अंत में समा जाते हैं वहीं पर, जहाँ वे जन्मते हैं।

 

संपूर्ण संग्रह में प्रकृति की छटा गहरी पैठी है। प्रकृति का सुंदर चित्रण कवि के सुदृढ़ वैचारिक पक्ष, विचारों और भावों की संवेदनशीलता और गहनता का परिचय देता है।

माँ और पिता से जुड़े भावों में सिर्फ कृतज्ञता का भाव मुखरित हुए हैं। चाक के सहारे,जीवन का श्रृंगार,संध्या क्यों जल्दी घिर आई,ईंट झर रही है,जिंदगी एक सिलसिला, हथेलियाँ, अहसास, जुलाहों के शहर में, अपने कान साफ़ करता हूँ, बौनापन, जैसी कविताएँ बार बार पढ़े जाने पर विवश करती हैं।

 

कविताओं में व्यंग्य भी है। सर्वहारा वर्ग के प्रति चिंताएँ और उनके जीवन के प्रति गहरी संवेदनाएँ भी हैं। संग्रह के अंत के कुछ पृष्ठों में मुक्तक और दोहों को संग्रहित किया गया है। वे सब भी पाठक मन पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं।

 

प्रकृति हो या मनुष्य का स्वभाव उसका चित्रण करने में अनुप्रास, पुनरुक्ति प्रकाश, यमक जैसे अलंकारों का न सिर्फ़ उपयोग हुआ है, बल्कि कई जगह पर मुहावरों ने काव्य रचनाओं के सौंदर्य को बढ़ाया है। कवि का व्यंजना में अपने भावों का प्रकटीकरण अच्छी काव्य रचनाओं को पढ़ने का आनंद देता है।

शब्दों का चयन विलक्षण है। कविताओं में प्रतीकों से जो बिंब बने हैं, वे अद्भुत हैं।

 

मेरे दृष्टिकोण में एक कवि की रचना उसके मन और हृदय का अनूठा दस्तावेज होता है। जहाँ भाव आस – पास की परिस्थितियों और अनुभवों से मन के गहरे ऐसे स्पर्श करते हैं कि रचनायें स्वतः पृष्ठों पर उतरती हैं। कुछ ऐसा ही भूपेश प्रताप सिंह जी के काव्य संग्रह को पढ़ाते हुए महसूस हुआ।

आपकी अधिकांश कविताओं पर बात हो सकती है। मैंने जो बहुत थोड़ा सा लिखा है, उसमें अभी बहुत कुछ लिखना शेष है।

एक पूरा पेज प्रकाशक के लिए लिखना बहुत सुंदर लगाl

साथ ही प्रकाशक का रचनाओं के संदर्भ में कॉपीराइट का प्रमाण पत्र भी देना जरूरी लगा। कवि भूपेश के लिए मेरी ढेर शुभकामनाएँ हैं।

प्रगति गुप्ता

जोधपुर