अनुराग लक्ष्य, 20 मई
मुम्बई संवाददाता ।
ज़िंदगी के कुछ इम्तेहान ऐसे भी होते हैं, कि इम्तेहान देने वाला यह समझ ही नहीं पाता कि वोह किस इम्तेहान में मुब्तिला है ।
बस ज़िंदगी चलती रहती है और इन्सान खामोश हो जाता है। न परेशानियाँ आसानियों में तब्दील होती हैं और न वफ़ा का बदला वफ़ा से मिलता है। उस पर सितम यह कि मंज़िल का दूर दूर तक कहीं नाम ओ निशाँ भी नहीं दिखाई देता, तब ज़बाँ पर यह दर्द उभर ही आता है कि,
,,, ठहरी हुई है ज़िंदगी रफ्तार नहीं है,
अब ऐसी ज़िंदगी से मुझे प्यार नहीं है,
मैं अपनी ज़िंदगी में किसे अब करूँ शामिल,
सुनते तो सभी हैं कोई ग़मख्वार नहीं है,,,
,,,, ज़िंदगी तू ही बता रँग तेरे कितने हैं,
थक गए ख़्वाब सभी साथ मेरे जितने हैं,
डूबती कैसे न चाहत की यह कश्ती मेरी,
ग़म के सैलाब मेरी राह में जब इतने हैं,,,
ऐ ज़िंदगी यह कैसा सुखनवर बना दिया,
तन्हाइयों को मेरा मुक़द्दर बना दिया,
यह कैसा फैसला है तेरा मेरे वास्ते,
कमज़ोर मुझे उसको सितमगर बना दिया,,,,
।।।।।। सलीम बस्तवी अज़ीज़ी ।।।।।।।