ओ३म्
-आर्यसमाज देहरादून का रविवारीय सत्संग-
“हमें स्वयं आर्य बनना है और फिर दूसरों को आर्य बनाना हैः डा.सुखदा सोलंकी”
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आज हमें आर्यसमाज धामावाला, देहरादून के रविवारीय साप्ताहिक सत्संग में सम्मिलित होने का अवसर मिला। हम प्रातः 9.00 बजे आर्यसमाज पहुंचे तो वहां एक माता जी का भजन हो रहा था। उनके भजन के शब्द थे – ‘सांसों का क्या भरोसा रुक जाये कब कहां पर, संसार में रहकर तू भोगों में क्यूं फंसा है।’ भजन की एक महत्वपूर्ण पंक्ति थी – ‘कुछ भी कर ले मनुष्य तू, तेरा सब छूटेगा यहां पर’। इस भजन के बाद आर्यसमाज के पुरोहित एवं धर्माचार्य पं. विद्यापति शास्त्री जी का एक भजन हुआ। उनके भजन के शब्द थे ‘भक्ति में मन परहित में तन जब तेरा हो जायेगा, तब तुझे खुद हृदय के भीतर परमात्मा मिल जायेगा।’ भजनों के बाद स्वामी श्रद्धानन्द बाल वनिता आश्रम की एक कन्या ने मंच पर बैठकर सामूहिक प्रार्थना कराई। इसके पश्चात ऋषि दयानन्द जी के जीवन चरित्र से आर्यसमाज के पुरोहित पं. विद्यापति जी ने पाठ किया। आज के प्रकरण में पंडित जी ने ऋषि के जीवन की बाल्यकाल की घटनाओं को प्रस्तुत किया।
समाज की रविवारीय सभा में उपदेश करते हुए डी.ए.वी. महाविद्यालय की सेवानिवृत्त संस्कृत विभागाध्यक्ष आर्य विदुषी डा. श्रीमती सुखदा सोलंकी जी ने कहा कि पहले हम किसी विषय को अपने मन में सोचते हैं, उसके बाद उन विचारों को कर्म में परिणत करते हैं। उन्होंने श्रोताओं को कहा कि हमें पहले स्वयं आर्य बनना है और फिर दूसरों को आर्य बनाना है। उन्होंने स्कूल व महाविद्यालयों की छात्राओं के वैदिक सनातन आर्य मर्यादाओं के विरुद्ध अनुचित आचरण की चर्चा की और इस स्थिति पर दुःख व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि बच्चे कम आयु में ही अपने जीवन व चरित्र का पतन कर लेते हैं। आचार्या जी ने ऋषि दयानन्द जी के जीवन में मथुरा में अध्ययन करते हुए अनजाने में एक स्त्री से स्पर्श होने का उल्लेख किया और बताया कि उसके बाद उन्होंने प्रायश्चित के रूप में कई दिनों तक अध्ययन को छोड़कर अपने मन को पवित्र करने के लिये ईश्वर का ध्यान, जप आदि कार्यों को किया था। कुछ दिन पाठशाला में न आने पर जब उनके गुरु स्वामी विरजानन्द दण्डीजी को इस बात का पता चला तो वह ऋषि दयानन्द के आचरण की शुद्धता के प्रति भावों को जानकर प्रसन्न हुए थे और उन्होंने उन्हें अपना आशीर्वाद दिया था। डा. सुखदा सोलंकी जी ने कहा कि हम ऐसे आदर्श जीवन के धनी आचार्य दयानन्द सरस्वती जी के शिष्य वा अनुयायी हैं।
आचार्या डा. सुखदा जी ने कहा कि हमारी सन्तानें हमारी जैसी बन सकती हैं यदि हम उनके जीवन निर्माण में आर्य जीवन पद्धति वा संस्कार विधि के नियमों को ध्यान में रखकर उनका जीवन बनायें। उन्होंने कहा कि ‘माता निर्माता भवति’ के अनुसार सन्तान के जीवन का निर्माण उसकी माता जैसा वह अपनी सन्तान को बनाना चाहे, वैसा कर सकती है। विदुषी आचार्या जी ने कहा कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य ईश्वर, जीव व प्रकृति का वेदों के अनुरूप स्वरूप का ज्ञान प्राप्त कर ईश्वर की उपासना करना, उपासना को सिद्ध कर ईश्वर का साक्षात्कार करना व जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर मोक्ष अवस्था को प्राप्त करना है। आचार्या जी ने कहा कि मनुष्य संसार में आकर सांसारिक व्यवहारों में फंस जाता है और ईश्वर के प्रति अपने कर्तव्यों को भूल जाता है। आचार्या सुखदा सोलंकी जी ने वाल्मीकि रामायण से राम व सीता के पावन चरित्रों को भी प्रस्तुत किया और साथ ही सीता जी का अग्नि परीक्षा विषयक भ्रम को वाल्मीकि रामायण के आधार पर ही प्रमाणों को प्रस्तुत कर भ्रमों को दूर किया। आचार्या जी ने रामायण को पढ़ने व उसके अनुसार अपने जीवन में वैदिक सिद्धान्तों को धारण करने को कहा।
कार्यक्रम का संचालन आर्यसमाज के युवा मंत्री श्री नवीन भट्ट जी ने किया। आर्यसमाज के प्रधान श्री सुधीर गुलाटी जी ने डा. सुखदा सोलंकी के विद्वतापूर्ण उपदेश के लिये उनका धन्यवाद किया। प्रधान जी ने दिवंगत दो लोगों की सूचना दी और उन्हें मौन श्रद्धांजलि दी गई। संगठन सूक्त एवं शान्ति पाठ के साथ आज का सत्संग समाप्त हुआ। इसके बाद प्रसाद वितरण हुआ। हम आज आर्यसमाज के सत्संग में सम्मिलित हुए। सत्संग में हमें हमारे अनेक पुराने मित्र मिले। इन मित्रों डा. विनीत कुमार जी वरिष्ठ वैज्ञानिक केन्द्रीय भारतीय वन संस्थान, देहरादून, श्री सतीश चन्द्र जी 82 वर्ष, श्री विजय वीर जी, श्री देवकी नन्दन शर्मा जी, श्री पवन कुमार जी, देवेन्द्र कुमार सैनी एवं श्री बसन्त कुमार जी सम्मिलित हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य