शीर्षक- मन की मुराद

कब से आस लगाकर, तेरी राह का रास्ता देखता हूँ।

ख्वाबों में तुमको पाकर, मैं खुद में ही निखरता हूँ।

सुबह आँखे खुलते ही, बस तेरी ही यादें आती है।

तुमको अपने पास ना पाकर, बाहें आहें खाती है।

दिनभर के कामों में भी, बस वही दिखाई देता है।

जिसकी आवाज सपनों में, हर रोज सुनाई देता है।

शाम को घर आते ही, बस उसकी बातें होती है।

जिसके बिना मेरे जीवन की, हर एक रातें रोती हैं।

पास होकर भी मेरे तुम, कुछ दूरी पर क्यों रहते हो?

अपने घर में आने से ही, इतना क्यों तुम डरते हो?

तुमको ही पाने की ख़ातिर, हर रोज मुरादें करता हूँ।

मंदिर मस्जिद में जाकर, करबद्ध फिरयादें करता हूँ।

डॉ. कृष्ण कान्त मिश्र

स्वरचित मौलिक

आजमगढ़ उ०प्र०

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