जब भी चुनावों, खासकर लोकसभा चुनाव, की तारीखें घोषित होती हैं, अपनी चमक खो चुके बॉलीवुड के सितारे अचानक राजनीति के फलक पर जगमगाने लग जाते हैं। लेकिन इन फिल्मी सितारों का राजनीतिक रोल सीमित ही रहा है। भले ही उन्होंने चुनाव जीत लिया हो लेकिन राजनीति के मैदान में वो हारते ही आये हैं।
18 वीं लोकसभा के लिए होने जा रहे चुनावों में अरुण गोविल और कंगना राणावत के डेब्यू और गोविंदा की वापसी ने इस पुराने, लेकिन दिलचस्प विषय को फिर से चर्चा में ला दिया है। फिर से उन्हीं प्रश्नों को पुनर्जीवित कर दिया है, जो हर बार सितारों को चुनाव लड़ते देखकर उछाले जाते हैं।
मसलन, फिल्मी सितारे राजनीति में क्यों आते हैं, जबकि समाज सेवा तो वे राजनीति में आए बिना भी कर सकते हैं। उन्हें खुद पर इतना भरोसा क्यों होता है कि जनता उन्हें जिताएगी ही पार्टियॉं अपने वर्षों पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं को नजरअंदाज कर सितारों को क्यों चुनाव मैदान में उतारती हैं ज्यादातर फिल्मी सितारे जीतने के बाद अपने मतदाताओं के लिए कुछ नहीं करते। क्या यह देश के कीमती संसाधनों और इनसे भी कीमती जनता के मतों की बर्बादी नहीं है चुनाव क्षेत्रों में लौटकर कभी न जाने के बावजूद पार्टियॉं उन्हें फिर से उसी क्षेत्र में चुनाव लडऩे भेजने की हिम्मत और हौसला कैसे जुटा पाती हैं ऐसे और भी कई प्रश्न हो सकते हैं, जिनके जवाब खोजना कोई मुश्किल नहीं है। लेकिन, इससे पहले हमें एक बात को स्वीकार करना होगा कि यह भी उन विषयों में से एक है, जिनका सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता।
अभी तक मतदाताओं द्वारा सितारों को चुनकर भेजने का जो रुझान रहा है, उसमें यही देखा गया है कि ज्यादातर वे सितारे चुनाव जीतते आए हैं, जो सत्तारुढ़ दल की ओर से चुनाव लड़े होते हैं। इनमें भी अधिकतर ऐसे सितारे होते हैं, जिनका राजनीति या समाजसेवा में अनुभव लगभग शून्य ही होता है। इनमें ऐसे बहुत कम होते हैं, जो समाज या लोगों के लिए कुछ करने की इच्छा के वशीभूत होकर राजनीति में आते हैं। ऐसे उदाहरण बहुत कम हैं जब ये सितारे प्रशंसकों से मतदाता बनने वाली अपने क्षेत्र की जनता को अपने कार्य से संतुष्ट कर पाए हों। अपनी छवि और सामाजिक कार्यों के बूते पर पॉंच बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले बालीवुड के स्टार सुनील दत्त जैसे कलाकार अपवाद ही होंगे, जिन्हें राजनीति बहुत रास आई। वर्ना अधिकतर सितारों ने सांसदी तो पाई लेकिन अपनी प्रतिष्ठा गंवा दी। इस वजह से कुछ दोबारा टिकट पाने में नाकाम रहे तो कुछ अपनी जीत को दोहराने में। अमिताभ बच्चन और धर्मेंन्द्र जैसे कुछ कलाकार ऐसे भी थे, जिन्होंने राजनीति से मोहभंग होने की बात कहते हुए संन्यास ले लिया। वैसे भी वास्तविक जीवन में हीरो बनना सेट पर हीरो बनने जितना आसान नहीं होता। 2004 में कॉन्ग्रेस के टिकट पर चुनाव जीतकर लोकसभा में सीट हासिल करने वाले गोविंदा न तो अपने मतदाताओं को नजर आते थे और न लोकसभा में। उन्होंने चार साल बाद सांसदी से इस्तीफा दे दिया। अपने लोकसभा क्षेत्र और लोकसभा में बहुत कम दिखाई देने वाले एक और कलाकार सनी देओल भी हैं, जो पंजाब के गुरदासपुर से सांसद हैं। उनकी राजनीति में असफलता के कारण ही इस बार भाजपा ने उन्हें टिकट नहीं दिया है। सन्नी देओल उसी सीट से सांसद थे जिससे दिवंगत विनोद खन्ना चार बार सांसद चुने गए थे। चुनाव क्षेत्र में न जाने के आरोप उन पर भी लगते थे, लेकिन उन्होंने अपने क्षेत्र की जनता की समस्याएं सुनने और हल करने के लिए अपने लोगों की टीम बनाई हुई थी। यह टीम व्यवस्थित ढंग से अपना काम करते हुए उनकी जीत की संभावनाओं को बचाए रखती थीं। राजनीति को रास आने वाले मौजूदा कलाकारों में शत्रुघ्न सिन्हा, हेमा मालिनी और स्मृति ईरानी का नाम भी प्रमुखता से लिया जा सकता है। लेकिन, देखा जाए तो फिल्मों से राजनीति में जाने वाला फिल्म जगत का कोई भी सितारा पॉलिटिकल स्टारडम की उन ऊंचाईयों को नहीं छू पाया है, जिन पर दक्षिण के सितारे दशकों तक विराजमान रहे। चाहे वह एनटीआर हों, जयललिता हों या एम. जी. रामचंद्रन। इन्होंने अभिनेता के तौर पर भी लोगों के दिलों पर राज किया और राजनेता के रूप में भी। शत्रुघ्न सिन्हा ने ऐसी आकांक्षा जरूर पाली थी, लेकिन बेल परवान नहीं चढ़ पाई। बार-बार संसद में पहुँचने में वे अवश्य सफल रहे हैं। कुछेक अपवादों को छोड़कर, सितारों का राजनीति या समाज में कोई बहुत खास योगदान नहीं रहा है। इसके बावजूद पार्टियां उन पर दांव लगाती हैं, तो यह अकारण नहीं होता। पहले कहा जाता था कि वे सितारों की लोकप्रियता को भुनाकर अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए उन्हें मैदान-ए-जंग में उतारती हैं। लेकिन, मौजूदा राजनीतिक परिदृश्य में यह एक आउटडेटेड विचार लगता है। जैसे भाजपा को इस समय चुनाव जीतने के लिए किसी सितारे को टिकट देने की कोई जरूरत नहीं लगती। इसी तरह कोई सितारा कॉन्ग्रेस की जीत की गारंटी नहीं बन सकता। फिल्मी सितारों का अधिकतर उपयोग होता है, चुनाव प्रचार में भीड़ इक_ा करने के लिए और जनता की भावनाओं को दोहन करने के लिए। और पार्टियॉं यही करती भी हैं। दूसरा इस्तेमाल यह होता है कि उन्हें अधिकतर एक कद्दावर प्रतिद्वंद्वी के मुकाबले में उतारा जाता है, ताकि जीत के मतों का अंतर बढ़ाया जा सके या हार के अंतर को कम किया जा सके। जैसे 1984 में हेमवती नंदन बहुगुणा के मुकाबले अमिताभ को लाना, 1991 में लालकृष्ण आडवाणी के विरुद्ध राजेश खन्ना को या 2004 में राम नाईक के खिलाफ गोविंदा को उतारना। इज्जत बचाने के इस सुरक्षित खेल में ऐसे अवसर विरले ही होते हैं, जब दो फिल्मी सितारे एक-दूसरे के खिलाफ चुनाव लड़ते नजर आएं। जैसे कि 1992 में आडवाणी के त्यागपत्र देने के कारण खाली हुई नई दिल्ली लोकसभा सीट के लिए हुए उपचुनावों में राजेश खन्ना के खिलाफ शत्रुघ्न सिन्हा को खड़ा किया। लेकिन, इसमें भी शत्रु को हार होने के बाद राज्यसभा की सदस्यता देकर उपकृत किया गया। इसीलिए असंतुष्टों को अक्सर शिकायत करते सुना जा सकता है कि फिल्मी सितारों को उनकी योग्यता के बजाय उनकी लोकप्रियता की वजह से प्राथमिकता दी जाती है। लेकिन, आखिरी फैसला तो मतदाता को ही करना होता है कि वह काबिलियत को चुनता है या शोहरत को। जैसे-जैसे लोकतंत्र परिपक्व होता जाएगा, वे समझने लगेंगे कि उन्हें किसे वरीयता देनी चाहिए। जब मतदाताओं को यह समझ आने लगेगा तो राजनीतिक दलों के लिए भी अपरिहार्य हो जाएगा कि वे ग्लैमर के मुकाबले काबिलियत को तरजीह दें।