कांग्रेस नेता राहुल गांधी पिछले साल के विधानसभा चुनावों में उठाए अपने एजेंडे से पीछे नहीं हट रहे हैं। उन्होंने अपनी भारत जोड़ो यात्रा का फोकस पिछड़े, दलित और आदिवासियों के ऊपर रहा है। वे बार बार यह सवाल उठा रहे हैं कि भारत में शासन चलाने में इन समुदायों की क्या भूमिका है। इसे वे ऐसे तरीके से पूछ रहे हैं, जिसके लिए उनकी आलोचना भी हो रही है। जैसे उन्होंने उत्तर प्रदेश के कानपुर में पत्रकारों से पूछा कि उनके चैनल या अखबार का मालिक कौन है? क्या कोई दलित या पिछड़ा या आदिवासी मालिक है? इस दौरान उनसे सवाल पूछ रहे एक पत्रकार के साथ कांग्रेस के कुछ अति उत्साही कार्यकर्ताओं ने मारपीट भी की।
राहुल गांधी पत्रकारों से इसी तरह का सवाल एआईसीसी मुख्यालय में भी कर चुके हैं। उन्होंने पूछा था कि प्रेस कांफ्रेंस में मौजूद कितने पत्रकार पिछड़ी जाति से या दलित समुदाय से हैं। तब भी इसकी आलोचना हुई थी। लेकिन वे इस मुद्दे को नहीं छोड़ रहे हैं। वे बता रहे हैं कि भारत सरकार ने 90 सचिवों में से सिर्फ तीन ओबीसी हैं। उन्होंने अब यह भी कहना शुरू किया है कि देश की बड़ी कंपनियों में किसी कंपनी का मुख्य कार्यकारी अधिकारी या शीर्ष अधिकारी पिछड़े, दलित या आदिवासी समाज का नहीं है। अपनी बात को प्रमाणित करने के लिए राहुल यह भी पूछ रहे हैं कि राममंदिर के उद्घाटन में अंबानी, अडानी तो बुलाए गए लेकिन किसी पिछड़े, दलित या आदिवासी को क्यों नहीं बुलाया गया? इसके आगे वे जाति गणना कराने और आरक्षण बढ़ाने की जरुरत बता रहे हैं।
भाजपा को उनकी इस रणनीति के चलते नुकसान की आशंका सता रही है। जानकार सूत्रों का कहना है कि तभी भाजपा ने अपनी चुनावी रणनीति में कुछ बदलाव किया है। कहा जा रहा है कि भाजपा लोकसभा के चुनाव प्रचार में हर जगह सिर्फ मंदिर का मुद्दा नहीं उठाएगी। मंदिर के साथ साथ वह लाभार्थी का जिक्र करेगी। लेकिन उससे बड़ी बात यह बताई जा रही है कि भाजपा ने तय किया है कि दलित या आदिवासी बहुल इलाकों में मंदिर की बजाय सरकार की लोक कल्याणकारी योजनाओं का जिक्र ज्यादा होगा। इसका मतलब है कि भाजपा को लग रहा है कि मंदिर का मुद्दा दलित और आदिवासी समुदाय में बहुत ज्यादा अपील नहीं करेगा। इसके उलट राहुल गांधी की बातें ज्यादा अपील कर सकती हैं। इसलिए भाजपा ने वैकल्पिक रणनीति तैयार की है।