ग़ज़ल
फरेबो मक्र की तेरी दुकान कागज पर।
नहीं किसी को रहा इत्मिनान कागज़ पर।।
नहीं चलेगी तेरी झूठी शान काग़ज़ पर।
न कर ख़ुदी का ज़रा भी गुमान काग़ज़ पर।।
वो रोज़ देता है झूठा बयान काग़ज पर।
ग़रीब का न हुआ है निदान काग़ज पर।।
पलक झपकते ही बरबाद हस्ती होती है
करें न आप ज़रा भी गुमान काग़ज़ पर।।
तेरे बयान पे कोई यक़ीन कैसे करे।
तरह तरह का है लिक्खा बयान काग़ज़ पर।।
नहीं है ठौर कोई उसके पास रहने का ।
दिखा रहा है कई वो मकान काग़ज पर।।
ग़रीबों के लिये तामीर तो हुए हैं मगर
वो सब के सब हुए पक्के मकान काग़ज़ पर
वतन के वास्ते कुर्बान हो गया हर्षित
मगर कहां पे है नामोनिशान काग़ज पर।।