धड़कनों में शोर है , इस शोर में इक साज़ है।
पढ़ सको गर तुम प्रिये इन आँखों मे इक राज़ है।
होश की गर हो सके कोई दवा मुझको दिला।
बेहोशी में उम्र गुजरी खुद से तू मुझको मिला।
खो गया तुझमें कहीं मैं न मिला इसका सिला।
देर से आये भला मुझतक़ ख़बर मेरी तो ला।
तू नहीं सुनता कभी क्या ये तेरा अंदाज़ है।
पढ़ सको गर तुम,,,,,,,
चुन लिया मैंने उसे जो हो के भी होता नहीं।
वो कभी दिखता नहीं पर वो कभी खोता नहीं।
आस में विश्वास में मेरे इरादों में पले।
सो भी जाऊँ मैं अगर वो ही सदा मुझमें जगे।
न ख़बर अंज़ाम की ऐसा भी ये आगाज़ है।
पढ़ सको गर,,,,,,
एक ही तो ज़िंदगी इंसमे भला क्या क्या करूँ।
डोर बाँधू तुझसे मैं या बेवज़ह भटका फिरूँ।
ये सफर बस रात का है भोर में तुझसे मिलन।
ले यही उम्मीद बस हर सुबह में खिलती किरन।
संग तुम्हारे उड़ चली ऐसा भी ये परवाज़ है।
पढ़ सको गर,,,,,
ज्योतिमा शुक्ला ‘रश्मि’