ग़ज़ल
ये किसका नाम दे दिया है इश्तेहार में,
पलके बिछाये बैठे हैं सब इंतेज़ार में।
अल्लाह रिज़्क देता है अब भी यक़ीन है,
सब कुछ लुटा के बैठा है जो कारोबार में।
आहिस्ते से उठाइये पटरी से लाश को,
कम्बख़्त धोखा खा गया यकतरफ़ा प्यार में।
जिस दिन से नौकरी से रिटायर हुआ हूँ मैं,
देता नहीं है कोई भी कुछ भी उधार में।
इस बात से बरहम है वो कितना न पूछिए,
जो कह दिया था मुझ सा दिखा दो दयार में।
हर सम्त आग और धुआँ,चीख़ती फ़ज़ा,
किसने लगा दी आग ये आ कर चिनार में।
हर वक़्त वो नदीम को खींचे है अपनी सम्त,
अल्लाह जाने कौन है सोया मज़ार में।
नदीम अब्बासी “नदीम”
गोरखपुर॥