मैं भी देखूंगा मदीना कभी इंशाअल्लाह, सलीम बस्तवी अज़ीज़ी

/ गुज़र गया मुकद्दस महीना माह ए रबीउल अव्वल /

मैं भी देखूंगा मदीना कभी इंशाअल्लाह, सलीम बस्तवी अज़ीज़ी,,,,,,

अनुराग लक्ष्य, 23 सितंबर

सलीम बस्तवी अज़ीज़ी

मुम्बई संवाददाता ।

दिल ग़मगीन है और आँखें नम, क्योंकि इस्लामी महीने का सबसे खूबसूरत इंपॉर्टेंट महीना माह ए रबीउल अव्वल हमसे कल जुदा हो गया।

मदीने के ताजदार शह ए बतहा मुस्तफा जान ए रहमत के 1500 वें यौम ए वेलादत का जश्न पूरी दुनिया ने बहुत ही अकीदत और मुहब्बत के साथ मनाया ।

जितना इस महीने के आने की खुशी थी, उससे ज़्यादा इसके जुदा होने का ग़म भी हर उम्मत ए मुहम्मदी को सता रहा है। तभी तो मेरी ज़बान से बेसाख्ता यह अशआर निकला कि,

मेरे मुस्तफा का सानी न हुआ न है न होगा,

कुरआन की ज़बानी न हुआ न है न होगा,

कोई जगह बतादो जाकर नज़र यह ठहरे,

गुम्बद वोह सब्ज़ धानी न हुआ न है न होगा,,,,,

इसी के साथ यह हसरत भी दिल में मचलने लगती है कि,

मैं भी देखूंगा मदीना कभी इंशाअल्लाह,

कहता है दिल का नगीना कभी इंशाअल्लाह,

है यकीं मुझको कि दीदार ए मुस्तफा में ज़रूर,

पहुंचेगा मेरा सफ़ीना कभी इंशाल्लाह,,,,

,,,,,,,,,, क्योंकि,,,,,,,,

न दौलत न शोहरत न ज़र चाहिए,

मुझे अपने आका का दर चाहिए,

यह हलचल मची है जो दिल में मेरे,

मेरे दिल को तैबा नगर चाहिए,,,

और इसी के साथ जब एक आशिक़ ए रसूल इश्क़ ए मुस्तफा में सरशार होकर अपनी अकीदत और मुहब्बत को मुस्तफा जान ए रहमत पर न्योछावर कर देता है तो एक दिन उसके लिए बुलावा आ ही जाता है, वोह भी इस तरह कि,

मदीने की हसीं गलियों से यह पैग़ाम आया है,

मुहम्मद के ग़ुलामों में तेरा भी नाम आया है,

ख़ुदा ने कर दी है तुझपे भी रहमत की वही बारिश,

तमन्ना थी जो तेरे दिल की वोह ईनाम आया है ,,,,