एक ठोकर से ज़मी पर जो बिखर जाते हैं

एक नई ग़ज़ल

आहटें पाते ही क्या जाने किधर जाते हैं।
ज़ुल्मी इन्सान मेरे साये से डर जाते हैं।।

जिनके होठों से यहां फूल गिरा करते थे।
बात बे बात पे क्यूं आज बिफर जाते हैं।।

ऐसे इंसान का हम कैसे भरोसा कर ले।
चंद सिक्कों के लिए पल में मुकर जाते हैं।।

वो ज़माने से भला कैसे लड़ेंगे यारों।
एक ठोकर से ज़मीं पर जो बिखर जाते हैं।।

ज़हन में बात मेरे रोज़ यही उठती है।
बाद मरने के भला लोग किधर जाते हैं।।

आप की नज़रे करम ही की बदौलत हर्षित।
लाख तूफां हो मगर पार उतर जाते हैं।।

विनोद उपाध्याय हर्षित

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