क्यों सर झुकाये माँग रहा है मज़ार से,
गर माँगना है माँग तू परवरदिगार से।
तंग आ के हमने बेच दी कोठी सुनार से,
कब तक चलाते काम भला हम उधार से।
आ जाएँगे ख़ुद चल के बुलाओ तो प्यार से,
पकड़े न जाएँगे कभी हम इश्तेहार से।
मेरा बदल जो खोज रहे हो तो फिर सुनो,
ले आओ कोई मुझ सा तुम अपने दयार से।
हम तो समेटे दर्द का अम्बार हैं बैठे,
इक तुम हो कि घबरा गये हल्के बुख़ार से।
मौसम की मार,सूखी फसल,बाढ़,सूद,कर्ज़,
पूछो तुम इनका दर्द किसी काश्तकार से।
ख़ुद को छुपाना पड़ गया बाज़ार में नदीम,
उतरी बड़ी जो शान से वो अपनी कार से।
नदीम अब्बासी “नदीम”
गोरखपुर॥