कथा – कर्ण और श्राद्ध का प्रसंग

कथा – कर्ण और श्राद्ध का प्रसंग

 

महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़ते हुए कर्ण वीरगति को प्राप्त हुए। युद्ध समाप्त होने के बाद जब वे स्वर्ग पहुँचे, तो वहाँ उन्हें देवताओं ने बड़े सम्मान से स्थान दिया।

 

स्वर्ग में उन्हें भोजन परोसा गया। परंतु, आश्चर्य की बात यह हुई कि उनकी थाली में सोना, चाँदी, हीरे-मोती ही परोसे गए, खाने का अन्न नहीं था।

 

कर्ण यह देखकर चकित हुए और उन्होंने देवताओं से पूछा –

“यह क्या है? मुझे अन्न के स्थान पर आभूषण क्यों दिए गए हैं? मनुष्य का पेट तो अन्न से ही भरता है।”

 

तब देवताओं ने उत्तर दिया –

“हे कर्ण! जीवन भर आपने असंख्य दान दिए, सोना-चाँदी, गाएँ, भूमि और धन सब दान किया। परंतु आपने कभी अन्न का दान नहीं किया। इसी कारण यहाँ आपके लिए अन्न उपलब्ध नहीं है।”

 

यह सुनकर कर्ण अत्यंत दुखी हो गए। उन्होंने folded hands कर देवताओं से विनती की –

“हे देवताओं! यह मेरी भूल है। जीवन में मैंने सब कुछ दिया पर अन्न का दान करना भूल गया। अब मैं अपने पितरों के लिए श्राद्ध करना चाहता हूँ। कृपा करके मुझे कुछ समय के लिए पृथ्वी पर भेज दीजिए।”

 

देवताओं ने उनकी प्रार्थना स्वीकार की और उन्हें पंद्रह दिनों के लिए पृथ्वी पर आने का अवसर दिया।

 

कर्ण पृथ्वी पर आए और उन पंद्रह दिनों तक उन्होंने अन्न, जल और तर्पण से अपने पितरों का श्राद्ध किया। उन्होंने ब्राह्मणों, गरीबों और भूखों को भरपेट भोजन करवाया और अन्न-जल का दान किया।

 

उन्हीं पंद्रह दिनों को आगे चलकर पितृपक्ष (श्राद्धपक्ष) कहा गया, जब हर मनुष्य अपने पितरों की आत्मा की शांति और तृप्ति के लिए अन्न-जल का दान करता है।

 

✨ इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि अन्नदान से बढ़कर कोई दान नहीं। सोना-चाँदी, धन-संपत्ति सब क्षणभंगुर है, परंतु किसी भूखे को अन्न खिलाना और पितरों के नाम से तर्पण करना सबसे श्रेष्ठ कर्म है।

 

नेहा वार्ष्णेय

दुर्ग छत्तीसगढ़