अनुराग लक्ष्य, 21 अगस्त
सलीम बस्तवी अज़ीज़ी
मुम्बई संवाददाता ।
जो लोग मुशायरों और कवि सम्मेलनों से अपना रिश्ता बनाए हुए हैं, उन्हें तो अच्छी तरह इस बात की जानकारी होगी कि जिस तरह रुमानियत , वीर रस की कविताओं और ग़ज़लों को लोग पसंद करते हैं उसी तरह हास्य शैली और मज़ाह का भी अपना रंग है, उसके बगैर कोई भी कवि सम्मेलन और मुशायरे की कामयाबी सुनिश्चित नहीं की जा सकती। आज उत्तर प्रदेश के गोण्डा जिले से ताल्लुक रखने वाले एक ऐसे हास्य व्यंग के रचनाकार विनोद कलहंस को लेकर मैं सलीम बस्तवी अज़ीज़ी हाज़िर हो रहा हूँ जिसकी रचनाएं हमेशा देश समाज और सामाजिक विसंगतियों पर करारा प्रहार करती नज़र आती हैं। प्रस्तुत हैं उनके कुछ अशआर।
1/ जेब हुई खाली सब माल हुआ फुर्र,
देखते ही देखते रुमाल हुआ फुर्र ।
2/ हमतो अपना कंधा खुजलाने में बिज़ी थे,
सब कुछ बटोर करके बेताल हुआ फुर्र ।
3/ कुछ लोग तमाशबीन थे बस देखते रहे,
थमाकर कटोरा हमको कंगाल हुआ फुर्र ।
4/ सबके काम धंधे जब हो गए चौपट,
झोली समेट करके दलाल हुआ फुर्र ।
5/ करके खूब मेकअप आया था कैमरे पर,
वोह सूट बूट वाला दजजाल हुआ फुर्र ।
,,,, पेशकश, सलीम बस्तवी अज़ीज़ी,,,,,,