“दयानन्द-दर्शन एवं वाङ्मय के मर्मज्ञ स्मृतिशेष डा. भवानीलाल भारतीय”
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-लेखक : कीर्तिशेष डा. विनोदचन्द्र विद्यालंकार (प्रस्तुतकर्ताः मनमोहन आर्य)
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कुछ वर्ष पूर्व के वे दिन आज भी स्मृति-पटल पर अंकित हैं, जब डा. भवानीलाल भारतीय सपत्नीक हरिद्वार आये थे और अपने प्रिय शिष्य डा. दिनेशचन्द्र शास्त्री के निवास पर ठहरे थे। उस समय उनका अत्यधिक निकट सान्निध्य प्राप्त हुआ था। इस दौरान आर्य वानप्रस्थाश्रम ज्वालापुर में उनके तीन-चार व्याख्यान करवाये गये और उनकी अनवरत हिन्दी सेवा के लिए 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस के अवसर पर उन्हें सम्मानित भी किया गया। उनके इस प्रवास-काल में हम लोग भ्रमण के लिये पतंजलि योगपीठ भी गये तथा वे हमारी कुटिया में भी पधारे। यह थी उनकी अन्तिम हरिद्वार यात्रा और हम सबसे सदा स्मरणीय साक्षात्कार।
डा. भारतीय इससे पूर्व भी प्रायः गुरुकुल विश्वविद्यालय के आमंत्रण पर आते रहते थे और जब भी आते तभी अन्य लोगों के अतिरिक्त आचार्य डा. रामनाथ जी वेदालंकार से उनके निवास पर जाकर अवश्य मिलते थे। इस विद्वत्-मिलन में चर्चा का विषय होता-महर्षि दयानन्द, आर्यसमाज और वैदिक वाङ्मय के विभिन्न पक्ष।
कालान्तर में डा. भारतीय से अनेक बार चलभाष पर विभिन्न विषयों पर चर्चा होती रही। उन्होंने समय-समय पर मेरी शंकाओं का भी समाधान किया। कुछ लोगों का मत है कि आर्यसमाज के मंच से गीता पर प्रवचन नहीं होने चाहियें। वे अपने विरोध का कारण यह बतलाते हैं कि महर्षि दयानन्द गीता-पठन के पक्ष में नहीं थे। मेरी सम्मति इसके विपरीत थी। मैंने सार्वदेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के तत्कालीन प्रधान स्वामी सुमेधानन्द जी सरस्वती, डा. सोमदेव शास्त्री, स्वामी प्रणवानन्द सरस्वती, डा. भारतीय आदि से इस विषय में उनकी सम्मति जाननी चाही। सभी का उत्तर मेरे पक्ष में ही था। डा. भारतीय ने सप्रमाण यह बताया कि महर्षि दयानन्द ने कतिपय प्रक्षेपों को छोड़कर शेष गीता के पठन-पाठन पर कोई आपत्ति नहीं की है। इस संदर्भ में उन्होंने स्वलिखित एक पुस्तक ‘मैंने ऋषि दयानन्द को देखा’ में प्रकाशित एक लेख को देखने को कहा और उसकी फोटोस्टेट प्रति भी भेजी। साथ ही उन्होंने गीता पर स्वामी आत्मानन्द जी द्वारा लिखित पुस्तक भी देखने का परामर्श दिया। जब कभी मैंने अपने सम्पादन काल में उनसे ‘स्वस्ति पन्थाः’ के लिए लेख भेजने का अनुरोध किया, उसे भी उन्होंने पूरा किया। अब भी इस पत्रिका में उनके लेख छपते रहते हैं। पिता जी की स्मृति में प्रकाशित ‘श्रुति मंथन’ के लिए उनके दो लेख प्राप्त हुए और जब प्रकाशित ग्रन्थ उनको प्राप्त हुआ तो उसे देखकर उन्होंने अपनी प्रसन्नता व्यक्त की।
12 सितम्बर 2018 की रात्रि में मेरे पुत्र स्वस्ति अग्रवाल ने बताया कि फेसबुक में प्रसारित समाचार के अनुसार डा. भारतीय अब हमारे बीच नहीं रहे-90 वर्ष की आयु में उसी दिन प्रातःकाल की बेला में उनका शरीरान्त हो गया था। पीछे रह गईं उनकी स्मृतियाँ एवं उनका बहुआयामी कृतित्व।
डा. भारतीय का जन्म 1 मई 1928 ईस्वी (आषाढ कृष्ण 3, संवत् 1985 विक्रमी) को परबतसर (नागौर जिला) राजस्थान में श्री फकीरचन्द जी के यहां हुआ था। आपकी प्राथमिक व मिडिल स्तर तक की प्रारम्भिक शिक्षा परबतसर तथा समीपवर्ती संगममेर के नगर मकराना में हुई थी। हाईस्कूल से बी0ए0 तक की शिक्षा जोधपुर में प्राप्त की। तदनन्तर शिक्षक रहते हुए हिन्दी (1953) और संस्कृत (1961) में एम0ए0 किया। तत्पश्चात् सन् 1968 में ‘‘आर्यसमाज का संस्कृत भाषा और साहित्य को योगदान” विषय पर राजस्थान विश्वविद्यालय से पी-एच0डी0 की उपाधि प्राप्त की।
‘माथुर’ से ‘भारतीय’ कैसे
डा. भवानीलाल जी एक बार डीडवाना (राजस्थान) अपनी ननिहाल गये। वहाँ उनकी भेंट गुरुकुल विश्वविद्यालय के स्नातक प्रो. ओमप्रकाश वेदालंकार से हुई। एक दिन बातचीत के दौरान प्रो. वेदालंकार ने जिज्ञासावश आपसे पूछा कि आपका ‘माथुर’ से ‘भारतीय’ बनने का क्या रहस्य है? भारतीय जी ने मुस्कुराते हुए जो उत्तर दिया, वह उन्हीं के शब्दों में-‘‘वेदालंकार जी! …. आज से अनेक वर्ष पूर्व जब मैं ऋषि दयानन्द और आर्यसमाज के सम्पर्क में आया तो मुझे ऋषि का ‘कर्मणा जाति’ का सिद्धान्त बड़ा उपयोगी, सार्थक और आवश्यक जान पड़ा। उससे पूर्व मैं अपने नाम के साथ ‘माथुर’ शब्द लगाया करता था। तब मुझे यह भारस्वरूप प्रतीत होने लगा। मुझे ऐसा लगने लगा कि सर्वप्रथम मुझे इस ‘माथुर’ (जन्मना जातिसूचक शब्द) को अपने से विलगाना पड़ेगा तभी मैं ऋषि दयानन्द का अनुयायी अपने को मान सकूँगा। फिर विचार आया कि इस शब्द को मैं हटा दूँ, किन्तु यह लोक प्रवाह किसी न किसी रूप से उसे जोड़ता ही रहेगा। अतः इस बुराई के स्थान पर कोई अच्छाई स्वीकारनी चाहिए। क्या नाम रक्खा जाए इस पर विचार करते-करते मुझे लगा कि ‘भारतीय’ नाम ठीक रहेगा। ….. बस तब से ‘माथुर’ ‘भारतीय’ हो गया और आज तक यही हूँ।”
आर्यसमाज की विचारधारा का प्रभाव
भारतीय जी जब पाँचवीं कक्षा में पढ़ते थे तो इतिहास की एक पाठ्यपुस्तक में ‘सरल ऐतिहासिक कहानियाँ’ (पं. गोकुलप्रसाद पाठक) में कबीर, राजा राममोहन राय, दयानन्द और ईसाई धर्म सुधारक मार्टिन लूथर जैसे धर्म-सुधारकों के जीवन-चरित्र पढ़े और धार्मिक-सुधार की महत्ता से परिचित हुए। महर्षि दयानन्द की विचारधारा ने आपको सबसे अधिक प्रभावित किया और उसी दिन से आप दयानन्द के अनुयायी बन गये। कालान्तर में जोधपुर आने पर आर्यसमाज सरदारपुरा के वार्षिकोत्सव पर पंडित प्रकाशचन्द्र कविरत्न, पं. सुरेन्द्र शर्मा आदि के भजन तथा पं. कालीचरण शर्मा, आचार्य विश्वश्रवा सदृश विद्वानों के तर्कपूर्ण व्याख्यान सुनने के बाद आप आर्यसमाज की विचारधारा में पूर्ण रूप से सराबोर हो गये। प्रारम्भ में आप आर्य कुमार सभा जोधपुर के सदस्य बने और 18 वर्ष की आयु हो जाने पर आर्यसमाज गुलाब सागर जोधपुर के सभासद बन गये। आप सन् 1954 तक इसी समाज में पुस्तकालयाध्यक्ष एवं मंत्री पद पर कार्य करते रहे। सन् 1956-57 में नागौर जिले के छोटी खाटू ग्राम में हिन्दी के वरिष्ठ प्राध्यापक नियुक्त होकर गये, जहाँ मात्र एक सत्र में ही प्रसुप्त आर्यसमाज को जीवित, जागृत किया। सन् 1962 से 1969 तक आपने पाली आर्यसमाज की गतिविधियों का संचालन किया, उसके पश्चात् आप अजमेर आ गये। यहाँ आप वर्षों तक नगर आर्यसमाज के प्रधान रहे। सन् 1970 में आप परोपकारिणी सभा, अजमेर से जुड़ गये और उसके संयुक्त मंत्री चुने गये। परोपकारिणी सभा के कार्यकाल में आपने महर्षि दयानन्द के ग्रन्थों का सम्पादन, मुद्रण, प्रकाशन आदि का पूर्ण तत्परता से संचालन किया, साथ ही सभा के मुख पत्र ‘परोपकारी’ के भी सम्पादन का दायित्व वर्षों तक संभालते रहे।
पंजाब विश्वविद्यालय की वैदिक शोध-पीठ में
सन् 1976 में पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ में आर्यजगत् के वरिष्ठ विद्वानों-डा0 रामप्रकाश, स्वामी डा0 सत्यप्रकाश आदि तथा विश्वविद्यालय के कुलपति डा0 आर0सी0 पाल के सद्प्रयास से महर्षि दयानन्द वैदिक अनुसंधान पीठ की स्थापना हुई। इसके प्रथम प्रोफेसर तथा अध्यक्ष के रूप में गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के यशस्वी स्नातक एवं वेदों के मर्मज्ञ विद्वान् आचार्य डा0 रामनाथ वेदालंकार की नियुक्ति हुई और वे 1980 तक इस पद पर कार्यरत रहे। उसके बाद दिसम्बर 1980 से द्वितीय प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के रूप में डा0 भारतीय की नियुक्ति की गई। वे प्रथम चरण में 2 मई 1988 तक इस पीठ में कार्य करते रहे और उसके बाद भी विश्वविद्यालय के अधिकारियों के आग्रह पर सन् 1991 तक कार्य किया।
यद्यपि आर्यसमाज से सम्बद्ध विषयों पर आपकी लेखनी अनवरत रूप से चलती रही, परन्तु उनके अध्ययन एवं लेखन का प्रधान विषय महर्षि दयानन्द का व्यक्तित्व एवं कृतित्व तथा आर्यसमाज का इतिहास-विशेष रूप से उसकी साहित्यिक गतिविधियों का मूल्यांकन- था। उनका दयानन्द के जीवन का अध्ययन इतना सूक्ष्म, विस्तृत तथा बहुआयामी था कि उनके जीवन की प्रत्येक घटना, तिथि, उनके सम्पर्क में आये लोग, प्रसंग तथा उनके साथ जुड़ी एक-एक घटना उन्हें हस्तामलकवत् ज्ञात थी एवं उनके एतद्विषयक अध्ययन और ज्ञान को देखते हुए उन्हें दयानन्द और आर्यसमाज का जीता-जागता विश्वकोश कहना किसी प्रकार की अतिशयोक्ति नहीं होगी। शोध पीठ में आकर भी आपने स्वयं तथा अपने से सम्बद्ध शोध-छात्रों के माध्यम से एतद्सम्बन्धी अन्वेषण किया-करवाया और उसे लेखबद्ध करना ही अपना प्रमुख लक्ष्य रखा।
सारस्वत-साधना
आपने सृजन का यह सब कार्य ‘दूसरों’ पर निर्भर रहकर नहीं, वरन् अपने निजी पुस्तकालय में संगृहीत साहित्य के आधार पर ही किया। आपके पुस्तकालय में दयानन्द विषयक जितने ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उतने शायद ही किसी अन्य पुस्तकालय में हों। डा. भारतीय इस विषय में कहते थे-‘‘यह तो संभव है कि कई पुस्तकें अन्यत्र हों, उन्हें मैं भी प्राप्त नहीं कर सका, किंतु मेरे पास इस विषय की जितनी पुस्तकें हैं, वे आपको अन्यत्र एक स्थान पर नहीं मिलेंगी। दयानन्द के प्रत्येक ग्रन्थ के भिन्न-भिन्न भाषाओं में हुए अनुवाद, विभिन्न प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित उनके संस्करण, उन पर लिखी गई टीका, टिप्पणी, व्याख्या, भाष्य आदि के ग्रन्थ, उनके खण्डन-मण्डन में लिखे गये ग्रन्थ आदि प्रभूत मात्रा में हैं। इसी प्रकार दयानन्द की भिन्न-भिन्न भाषाओं में लिखित जीवनियाँ शताधिक हैं।” इतना ही नहीं, दयानन्द विषयक जो भी नवीन सामग्री, संदर्भ या प्रसंग किसी भी पत्र-पत्रिका या ग्रन्थ में उन्हें मिला, उन्होंने उसकी कटिंग, फोटोस्टेट प्रति अथवा उसे मूल रूप में प्राप्त करके अपने पुस्तकालय में सुरक्षित रखा। ऐसा समृद्ध है उनका निजी पुस्तकालय, जो उनको हम लोगों से बहुत दूर जाने के बाद भी उनके स्मृति-पुंज को संजोये यहीं रह गया, सुधीजनों के उपयोग के लिए। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम उसका कितना सार्थक उपयोग करते हैं। (अपनी मृत्यु से कुछ समय पूर्व अपना पुस्तकालय व उसकी समस्त पुस्तकें उन्होंने गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार को दे दी थीं। हमने भारतीय जी का निजी पुस्तकालय देखा है। यह उस समय की बात है जब लगभग 25-30 वर्ष पूर्व उनके जोधपुर स्थित निवास पर उनसे मिलने गये थे। – मनमोहन आर्य)
तुलनात्मक अध्ययन के प्रति रुचि जागृत होने पर डा. भारतीय ने अपने गहन अध्ययन के बाद सन् 1956 के आस-पास यह निश्चय किया कि वे कालान्तर में आर्यसमाज की विचारधारा से भिन्न विचारों के कुछ विद्वानों/आचार्यों के साथ महर्षि दयानन्द की तुलना करके ग्रन्थों का प्रणयन करेंगे। उनकी इस संकल्पना की ही परिणति हैः ऋषि दयानन्द और राजा राममोहन राय (सन् 1957 में प्रकाशित) तथा स्वामी दयानन्द और स्वामी विवेकानन्द (इसका द्वितीय संस्करण सन् 1976 में प्रकाशित)। (इसका नया संस्करण सन् 2018 में आर्य प्रकाशक विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है – मनमोहन आर्य)
ये दोनों ही कृतियाँ पर्याप्त चर्चित एवं लोकप्रिय हुईं
ऋषि दयानन्द के जीवन, सिद्धान्त, मान्यताओं तथा आर्यसमाज के इतिहास और साहित्यपरक अन्वेषणों में एक नया अध्याय स्थापित कर चुके डा. भारतीय ने सम्बन्धित समग्र संकलित ऐतिहासिक सामग्री के आधार पर ‘‘नवजागरण के पुरोधा दयानन्द सरस्वती” शीर्षक से एक बृहत्काय ग्रन्थ की रचना की, जिसके प्रथम संस्करण में 27 अध्याय और 660 पृष्ठ थे। इसका लेखन-कार्य पंजाब विश्वविद्यालय की शोध-पीठ के कार्यकाल में आरम्भ किया गया था। यह संस्करण महर्षि दयानन्द के निर्वाण के शताब्दी वर्ष (1983) में परोपकारिणी सभा अजमेर से प्रकाशित हुआ था। इस कृति में घटनाओं के सन्निवेश में आपकी दृष्टि पूर्णतया तथ्यपरक रही है। यही कारण है कि आपने इसमें इतिहास सम्मत एवं प्रमाण-पुष्ट घटनाओं को ही सम्मिलित किया है। वस्तुतः अब तक लिखे गये जीवन-चरित्रों में इस ग्रन्थ का अपना अप्रतिम स्थान है।
प्रथम संस्करण के प्रकाशन के बाद डा. भारतीय ने अनुभव किया कि इसमें ऋषि-जीवन के बहुत से प्रसंग अनछुए रह गये हैं तथा कुछ विवादास्पद प्रसंगों पर अनुसंधानात्मक विश्लेषण के आधार पर समाधान अपेक्षित रह गये हैं। यह विचार आते ही उन्होंने इस पर गहन शोध एवं अध्ययन करते हुए नये संस्करण की तैयारी शुरू कर दी। अंततः इस ग्रन्थ का द्वितीय संशोधित एवं परिवर्धित संस्करण दो भागों में वर्ष 2009 में श्री घूड़मल प्रहलाद कुमार आर्य धर्मार्थ न्यास हिण्डौन सिटी से प्रकाशित हुआ था। इसमें लगभग 1000 पृष्ठ हैं। डा. भारतीय के शब्दों में, ‘‘यह ग्रन्थ उनकी सारस्वत-साधना का सुमेरु है।”
इससे पूर्व आपने श्री प्रभाकर देव आर्य, श्री घूड़मल प्रहलाद कुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डौन सिटी के आग्रह पर सन् 2006 में ‘ऋषि दयानन्दः सिद्धान्त और जीवन-दर्शन’ शीर्षक विशद विवेचनापूर्ण ग्रन्थ लिखा। इस ग्रन्थ में उनके क्रान्तिदर्शी विचारों और युगपरिवर्तनकारी कार्यों का ऐतिहासिक संदर्भ में किया गया विवेचन प्रस्तुत है।
ऋषि-जीवन-चरित्र पर आपका एक पूरक ग्रन्थ ‘‘महर्षि दयानन्द के भक्त, प्रशंसक और सत्संगी” है जिसमें लेखक ने स्वामी जी के सम्पर्क में आये और उनसे किसी न किसी रूप में जुड़े पचास ख्यातनामा व्यक्तियों के जीवन-वृत्त पर प्रकाश डाला है। इस संकलन में महर्षि के प्रति अनुराग रखने वाले, उनके सांस्कृतिक व सामाजिक सुधार आन्दोलन का अनुमोदन करने वाले और उनकी अगाध विद्या एवं उदात्त गुणों से लाभ प्राप्त करने वाले महानुभावों का तो समावेश था ही, साथ ही महर्षि के विचारों से भिन्न आस्था एवं मान्यता रखने वाले उन सज्जनों का भी जीवन-परिचय इसमें दिया गया है जो उनके भक्त, प्रशंसक व सत्संगी की श्रेणी में आते थे। इस कृति से डा. भारतीय के वैदुष्य एवं गंभीर चिन्तन का परिचय मिलता है।
आपका एक महत्वपूर्ण कार्य डा0 सत्यकेतु विद्यालंकार के प्रधान सम्पादकत्व में सात खण्डों में प्रकाशित ‘‘आर्यसमाज का इतिहास” के लेखन में सहयोग है। अन्य खण्डों के लेखन में यथावश्यक सहयोग देने के साथ-साथ इसका पाँचवां खण्ड आपकी सूक्ष्मेक्षिका, सारगर्भित विश्लेषण, प्रतिभा एवं अध्यवसाय का ही परिणाम है, जिसमें आर्यसमाज की विचारधारा से अनुप्राणित लेखकों द्वारा प्रणीत धार्मिक एवं लौकिक साहित्य का विशद सर्वेक्षण एवं मूल्यांकन प्रस्तुत किया है।
गोविन्दराम हासानन्द दिल्ली से 11 खण्डों में प्रकाशित ‘‘श्रद्धानन्द ग्रन्थावली” आपके तथा श्री राजेन्द्र जिज्ञासु के अथक परिश्रम की ही परिणति है, जिसमें आपने स्वामी जी की अंग्रेजी रचनाओं के अनुवाद के साथ-साथ सभी खण्डों के लिए सामग्री संकलन एवं सम्पादन में अभूतपूर्व योगदान देकर श्रेष्ठतम कीर्तिमान स्थापित किया है। ग्रन्थमाला के 11वें खण्ड में स्वामी जी की मौलिक और शोधपूर्ण जीवनी के प्रस्तुतीकरण में आपकी साहित्यिक शैली, सुष्ठु शब्द-चयन एवं प्रांजल वाक्य-रचना देखते ही बन पड़ती है।
पुराणों में चित्रित श्री कृष्ण-चरित्र के प्रत्येक प्रसंग की महाभारत के आलोक में तथ्यात्मक आलोचना करते हुए रचित ‘‘श्री कृष्ण चरित” डा0 भारतीय की एक मानक कृति है। इसका प्रथम संस्करण मार्च 1958 में आर्य साहित्य मण्डल अजमेर से प्रकाशित हुआ था। यह ग्रन्थ पाठकों में इतना अधिक लोकप्रिय हुआ कि संशोधन/परिवर्धन के साथ इसका द्वितीय संस्करण अगस्त 1981 में गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली ने प्रकाशित किया। आप द्वारा प्रणीत ‘‘दयानन्द साहित्य सर्वस्व” सन् 1984 में प्रकाशित हुआ, जिसमें दयानन्द कृत ग्रन्थों और उनके बारे में लिखित समस्त ग्रन्थों की सूची दी गयी थी।
यही नहीं, आपने आर्यजगत् के कतिपय मूर्धन्य विद्वानों के जीवन पर भी अपनी कलम चलाई है। इनमें प्रमुख हैं: भारत की स्वतंत्रता हेतु क्रांतिकारी आन्दोलन के प्रवर्तक एवं महर्षि दयानन्द के साक्षात् शिष्य ‘श्यामजी कृष्ण वर्मा’, स्वामी दयानन्द के अनुयायियों में अग्रगण्य ‘स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती’, ख्याति प्राप्त शास्त्रार्थ महारथी ‘पं0 गणपति शर्मा’, राजस्थान में धार्मिक जागरण के सूत्रधार एवं महर्षि से साक्षात्कार करने वाले ‘योगीराज महात्मा कालूराम’, राजस्थान में राजनीतिक गतिविधियों को आरम्भ करने में अग्रगण्य देशभक्त ‘श्री चाँदकरण शारदा’। इसी के साथ आपने आर्यजगत् के कतिपय वेदसेवक विद्वानों एवं शास्त्रार्थ महारथियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर भी दो अलग-अलग कृतियों का प्रणयन किया है। इतना ही नहीं, ‘महर्षि श्रद्धांजलि अंक’, ‘महर्षि दयानन्द प्रशस्ति;, ‘रुद्रदत्त शर्मा ग्रन्थावलीः भाग -1’, ‘दयानन्द दिग्विजयार्क’, ‘कर्णवास में महर्षि दयानन्द के ऐतिहासिक संस्मरण’, ‘दयानन्द शास्त्रार्थ संग्रह’, ‘काशी शास्त्रार्थ: शताब्दी संस्करण’ आदि आप द्वारा सम्पादित कुछ अन्य प्रमुख कृतियाँ हैं, जिनसे आपकी अद्भुत संपादन-प्रतिभा का दिग्दर्शन होता है।
एक बात और डा. भारतीय के शब्दों में, ‘‘आर्यसमाज के कई बुजुर्ग श्रेणी के लोग नवजागरण के पुरोधाःदयानन्द सरस्वती में अपनाई गई वैज्ञानिक और तुलनात्मक लेखन-शैली को समझ नहीं पाये और जब उन्होंने इसकी निरर्थक आलोचना की तो मैं उत्तर में एक वाक्य कहकर ही मौन हो गया कि प्रत्येक ग्रन्थ को पढ़ने और समझने की पात्रता भी हर एक में नहीं होती।“ वस्तुतः यह उनकी सदाशयता एवं शालीनता थी। कोई आश्चर्य नहीं, यदि इस तरह की टिप्पणी उनके न रहने पर भी की जाती रहे। ऐसा मैं किसी पूर्वाग्रह के कारण नहीं कह रहा, वस्तुतः आर्यसमाज में कुछ ‘सुधीजनों’ में दोषान्वेषण की यह प्रवृत्ति घर करती जा रही है, जो दुर्भाग्यपूर्ण है।
लेखन के अतिरिक्त मौखिक प्रचार भी भारतीय जी की विचाराभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम रहा। वे जहाँ-जहाँ भी प्रचारार्थ जाते थे, वे महर्षि दयानन्द के व्यक्तित्व एवं कृतित्व के प्रामाणिक तथ्यपरक दस्तावेजों को ही अपने व्याख्यानों का विषय बनाते थे। कहीं-कहीं तो वे स्वामी दयानन्द के जीवन एवं विचारों पर कई-कई दिन की कथाएं भी प्रस्तुत करते थे, जिन्हें सुनकर श्रोता मन्त्रमुग्ध एवं भावविभोर हो जाया करते थे।
अंत में एक बात और, सामान्यतया लोगों की यह धारणा होना स्वाभाविक ही है कि इतनी पुस्तकों के लेखक को रायल्टी में इतनी धनराशि प्राप्त हुई होगी कि वह एक अच्छा खासा धनपति होगा, पर वस्तुस्थिति इस सोच से पूरी तरह भिन्न है। डा. भारतीय के ही शब्दों में, ‘‘…….. मैंने संसार में भौतिक दृष्टि से कुछ भी उपार्जित नहीं किया। हाईस्कूल के एक सहायक अध्यापक के रूप में 68 रुपये मासिक वेतन पर 1949 में मेरी नियुक्ति हुई और मैं शिक्षा के इसी क्षेत्र में बढ़ता-बढ़ता देश के एक विख्यात विश्वविद्यालय में दयानन्द के नाम पर संचालित वैदिक शोध पीठ का अध्यक्ष और आचार्य नियुक्त हुआ, यह मेरे लिए कोई न्यून उपलब्धि नहीं रही।……. जब मैं आर्यसमाज के छोटे-बड़े पत्रों में अपने लेख प्रायः ही प्रकाशनार्थ भेजा करता था तो कई वर्ष हुए आर्यसमाज के एक सुप्रतिष्ठित तथा विश्वविद्यालय में स्थापित विद्वान् ने मुझे उलाहना-सा देते हुए कहा कि मैं क्यों अपनी शक्ति को इन छोटे-छोटे पत्रों को लेख भेज कर व्यय करता हूँ।…..मैंने अत्यन्त विनम्रता से निवेदन किया कि राजस्थान सरकार की कृपा से मुझे दाल-रोटी खाने जितना तो उपलब्ध हो ही जाता है। उसके उपरान्त मैं जो कुछ लिखता-पढ़ता हूँ वह अपनी मातृ-संस्था आर्यसमाज के यश और गौरव को बढ़ाने के लिए ही करता हूँ। ….. यही मेरा व्यसन है, यह मेरा नशा है। इन पत्रों में मैं स्वान्तः सुखाय ही लिखता हूँ।” यह था डा. भारतीय का महर्षि दयानन्द एवं आर्यसमाज के प्रति दीवानापन, जिसे उन्होंने ‘कर्म’ रूप में परिणत किया, ‘अर्थ’ और ‘यश’ की कामना से नहीं, वरन् मात्र ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ की भावना से तथा दयानन्द और आर्यसमाज के मिशन को जन-जन तक पहुँचाने के संकल्प को मूर्तरूप देने की दृष्टि से। ऐसे महान् तत्त्वदर्शी मनीषी, विचारक एवं आर्यसिद्धान्तों के विलक्षण प्रचारक डा. भारतीय की स्मृति में शत-शत नमन।
प्रस्तुतिः मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।