ग़ज़ल
अब तो घर वाले भी बीमार समझते हैं मुझे,
बीच रिश्ते के वो दीवार समझते हैं मुझे।
दोस्त अहबाब तो बेकार समझते हैं मुझे,
सैर करना है तो इतवार समझते हैं मुझे।
एक दो रोज़ क्या बैठा ज़रा मयख़ाने में,
मयकदे वाले तो अब यार समझते हैं मुझे।
मैं तो अदना सा सिपाही भी नहीं लश्कर का,
फिर भला आप क्यों सरदार समझते हैं मुझे।
फूटी कौड़ी भी नहीं जेब में मेरे लेकिन,
रख रखाव से क्यों ज़रदार समझते हैं मुझे।
जंग की कोई भी तैय्यारी नहीं है मेरी,
फिर भी मेरे दुश्मन तैय्यार समझते हैं मुझे।
क्या मेरा चेहरा ये मुरझाया नहीं दिखता उन्हें,
ये जहाँ वाले क्यों गुलज़ार समझते हैं मुझे।
वास्ते जिनके हिक़ारत मिली दरबारों से,
वो हवेली का तरफ़दार समझते हैं मुझे।
हार का जश्न मना कर अभी मैं लौटा हूँ,
अब भी क्या आप समझदार समझते हैं मुझे।
आप में थोड़ी सी भी शर्म-ओ-हया है कि नहीं,
उस क़बीले का परस्तार समझते हैं मुझे।
तंज अब बौने तलक करने लगे मुझ पे नदीम,
आप इस पर भी असरदार समझते हैं मुझे।
नदीम अब्बासी ‘नदीम’
गोरखपुर॥