ग़ज़ल
ख़ुदा ख़ुद को समझने की अकड़ने की झगड़ने की
दीयों को क्या ज़रूरत थी हवाओं से उलझने की
नहीं यूँ ही किसी को जान से जाना पड़ा अपनी
सज़ा पाई पतंगों ने शमाओं से लिपटने की
बता तो दूँ तुम्हे वो बात जो तुमको बतानी है
मग़र ये बात है केवल इशारों में समझने की
मैं हैराँ हूँ बला के शोर में तुमको भला कैसे
सुनाई दी सदा आख़िर मेरे दिल के धड़कने की
मुहब्बत में नफ़ासत और नज़ाकत शर्त है पहली
यही इक बात है जो है सलीके से बरतने की
जो आएं सैर को बेशक़ बहारों का नज़ारा लें
मनाही है मग़र गुलशन में तितली को पकड़ने की
ज़रा सुन ले मेरे दिल की भी ऎ मेरे ख़ुदा वरना
क़सम खायी है आँखों ने तेरे दर पर छलकने की
“किरण” उट्ठो ज़रा अब हौसले परवान चढ़ने दो
यही तो उम्र है इस जीस्त में कुछ कर गुज़रने की
©डॉ कविता ‘किरण’