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*आर्यावर्त ने याद किया महर्षि को!*
आर्यावर्त्त साधना सदन पटेल नगर दशहरा बाग में बड़े ही हर्षोल्लास के साथ मनाई ग ई *महर्षि दयानन्द जन्म जयंती* इस अवसर ऋषि दयानन्द की के जीवन दर्शन पर एक दुर्लभ एतिहासिक चिंतन प्रस्तुत किया गया।
*प्लासी का महासंग्राम*
सन् १८५७ में अंग्रेजों ने *प्लासी* की लड़ाई जीतने के बाद भारत को पूर्णतया लूटा,दबाया। *लार्ड डलहौजी* ने तो २० हजार से अधिक पुरानी जमींदारियों को अपहरण नीति के तहत जब्त करके भारतीयों का *राजनीतिक,शैक्षिक,आर्थिक,धार्मिक व व्यापारिक शोषण* किया।इससे तात्कालीन संत समाज आंदोलित हुआ।जिसमें २५०० संतों से प्रतिभाग किया ।जिसमें अग्रिम पंक्तियों में ४५० साधु थे जिन्होंने *सर्वखाप पंचायत* के अनुसार संवत १९७० फाल्गुन पूर्णमाशी सन् १८५० में महर्षि दयानन्द सरस्वती के गुरु *प्रज्ञा चक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती को भारत गुरुदेव* की पदवी दी थी।इसीलिए आर्य समाज उन्हे गुरुवर विरजानन्द कहता है।
इस संग्राम में ढाई हजार संतों के निर्देशक १२५ साधु और इस सबके प्रमुख संयोजक,प्रेरक,वेद-संस्कृत के मर्मज्ञ,योगी चार सन्यासी थे। ये चारों *बाल ब्रह्मचारी* थे।जिनका वर्णन नीचे किया जा रहा है।
*[१]* हिमालय के योगी २६० वर्षीय *स्वामी ओमानन्द* जी।
*[२]* ओमानन्द जी के शिष्य हरिद्वार के कनखल निवासी *स्वामी पूर्णांनन्द* जी।
*[३]* स्वामी पूर्णानन्द जी के शिष्य मथुरा वाले *प्रज्ञा चक्षु स्वामी विरजानन्द* जी।
*[४]* दंडी स्वामी विरजानन्द जी के शिष्य *महर्षि दयानन्द सरस्वती* जी थे।
*सन् १८५६ की गुप्त बैठक*
सन् १८५६ में मथुरा में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर गुरु विरजानन्द सरस्वती ने स्वाधिनता संग्राम का *प्रबल गुप्त म़त्र* दिया था।जिसमें हरियाणा प्रदेश से विशाल जनता उपस्थित थी।इस सभा में विशिष्ट व्यक्ति के रुप में *स्वामी दयानन्द सरस्वती,राव तुलाराम व राजा नाहर सिंह* थे।इसमे गुरु विरजानन्द सरस्वती जी का आदेश था कि *अंग्रेज स्त्रियों व बच्चों* की सुरक्षा की जाए।अत: १९५७ का युद्ध गदर या सैनिक क्रांति नहीं थी अपितु *दो राष्ट्रों के स्वाधीनता का संग्राम* था।राज बदलो क्रांति युद्ध था।
*स्वामी दयानन्द के अनेक नाम*
इस समय साधुओं ने अपने क ई नाम और क ई वेश बदले थे।गुप्त भाषाओं के गुप्त संदेश थे। स्वामी दयानन्द जी के सामने दो संकट थे।
*[१]* अंग्रेजों से भेद खुलने का भय।
*[२]* घर वालों से भी पकड़े जाने का भय।
इससे बचने के लिए उनके क ई नाम रखे गये जिनमें *गोल मुख वाला।मूल शंकर।रेवानन्द सरस्वती।दयालु* प्रमुख नाम थे। खापों का इतिहास बताता है कि सन् १८५५ के अंत में स्वामी जी झांसी की रानी के नाना *नाना सासब से मिलने विठूर(कानपुर)* ग ये और पांच दिन तक मंत्रणा की ।कुल १२ बार उनसे मुलाकात की।स्वामी जी ने नाना साहब से कहा था कि अंग्रेजों से स्वतंत्र होने पर *पंचायती राज चलाकर भारत को स्वर्ग* बनायेंगे। इस इतिहास को कांग्रेस सहित सभी व बाद के जनसंघ आदि राजनीतिक पार्टियों के अपनी तुष्टी करण की राजनीति के चलते दबाए रखा।
*महर्षि दयानंद का अज्ञातवास*
महर्षि दयानंद जी महाभारत में पांडवों के अज्ञातवास की रणनीति से प्रभावित थे।अत:उन्होंने *१८५७ से १८६९* तक अज्ञातवास को भारतीय स्वतंत्रता के लिए चुना।इन तीन वर्षों में भारत के बड़े-बड़े स्वदेशी व विदेशी खूपिया एजेंसियों से स्वामी जी की ३१ बार मुठभेड़ हुई थी।उनके तेज के आगे सभी नत मस्तक हो क्षमा मांग कर चले जाते थे।अंग्रेज जान गये थे कि स्वामी दयानन्द के रहते भारत को अधिक दिन गुलाम नहीं बना सकते!
*काशी का अद्भुत इतिहास*
सन् १८७९ के २० नवंबर से ५ म ई सन् १८८० तक स्वामी जी ने काशी में *सत्य सनाधन वैदिक धर्म* का धुंआधार प्रचार किया। तीन बार विज्ञापन देकर विधर्मियों व मत-मतांतर वालों को शास्त्रार्थ की चुनौती दी। *मोलवी,पादरी,जैन,बौद्ध ,पौराणिक* कोई भी सामने नहीं आया। पंडितों को आभास हो गया कि दयानंद को हराना संभव नहीं तो उन्होंने *छद्म युद्ध* का सहारा लिया। काशी के कलेक्टर को पत्र लिखा कि दयानंद के व्याख्यानों से समाज में झगड़ा होगा। कलेक्टर को भी बहाना मिल गया तब पहली बार समाज सुधारक महर्षि दयानंद के भाषणों पर प्रतिबंध लगख।इस पर *स्टार समाचार पत्र* ने सम्पादकीय लेख में लिखा की *ऋषि दयानंद के भाषण पर रोक व अलकार्ट के भाषण को स्वीकृति* देना तो *रंगभेद* है।
इतना ही नहीं *पायोनियर समाचार पत्र* ने तो काशी के पंडितों की पोल खोलते हुए लिखा कि *स्वामी दयानंद के उपदेश उस समय के युवाओं में जोश भर देता था*।
सन् १८७३ में अंग्रेज *वायसराय नार्थ ब्रुक* ने स्वामी जी को विशेष आंमत्रण देकर कोलकोता बुलाया ओर पूछा आपको धर्म प्रचार में कोई परेशानी तै नहीं। स्वामी जी बोले *मैं ईश्वर में विश्वास रखता हूं मुझे किसी का भय* नहीं है। चालाक वायसराय बोला।यदि ऐंसा है तो अपने भाषणों में अंग्रेजी राज्य की दीर्घायु की प्रार्थना कीजिए।
*स्वामी जी की सिंह गर्जना*
स्वामी जी ने कहा।वायसराय महोदय! स्वदेशी राज ही सर्वोत्तम होता है। विदेशी राज तो विनाश ही करता है।मैं तो प्रतिदिन यही योजना बनाता हूं कि *इन विदेशियों को किस प्रकार खदेड़ा जाए।* वायसराय आश्चर्य चकित होकर ऋषि को देखता रहा और समझ गया कि संसार का कोई भी लालच इन्हें नहीं डिगा सकता।इस सन्यासी के रहते अंग्रेजों का भारत में रहना संभव नही है।ऐसे थे ऋषि हमारे!
*थे न मठ मंदिर हवेली,*
*हाट,ठाट,बाट कहां*
*सोना चांदी पास,पैंसा था न ढेला था*।
*तन पर सुवस्त्र हाथ में न शस्त्र-अस्त्र*
*योगी न जमात कोई,चेली थी न चेला था*
*सत्य के सिरोही के संहारे सब असत्य मत,*
*संकट-विकट मरदानगी से झेला था।*
*सारी दुनियां के लोग एक ओर थे प्रकाश*
*एक ओर निर्भय दयानंद अकेला था*
आचार्य सुरेश जोशी
आर्यावर्त्त साधना सदन पटेल नगर दशहराबाग बाराबंकी उत्तर प्रदेश।