वेद स्वाध्याय
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सामवेद मंत्र १६०६ में परमात्मा के उपासक को कहते हैं। मंत्र निम्न है।
सव्यामनु स्फिग्यं वावसे वृषा न दानो अस्य रोषति।
मध्वा सम्पृक्ता: सारघेण धेनवस्तूयमेहि द्रवा पिब।।
मंत्र का पदार्थ सामवेद भाष्यकार वेदमूर्ति आचार्य (डॉ०) रामनाथ वेदालंकार जी रचित:- हे परमात्मा के उपासक! बलवान तू बायीं टांग को आगे करके और दाहिनी टांग को पीछे करके दौड़ लगाने के लिए खड़ा रह, अर्थात् सदा विक्रमशील रह। ऐसे विक्रमशील तेरी कोई भी हिंसक हिंसा नहीं कर सकेगा। हे उपासक! मधुमक्खियों से प्राप्त मधु से संयुक्त गोदुग्ध आदि तैयार हैं। तू शीघ्र आ, क्रियाशील हो, पान कर।
भावार्थ:- जैसे दौड़ की प्रतिस्पर्धा में प्रतिस्पर्धी लोग घुटने पर मुड़ी हुई बाईं टांग को आगे करके और दाहिनी को पीछे करके आकृति-विशेष में दौड़ने के लिए तैयार खड़े रहते हैं, वैसे ही परमेश्वर का उपासक सदा ही पुरुषार्थ के लिए तैयार रहता है। इसलिए उसके रास्ते में कोई बाधा नहीं डाल सकता, प्रत्युत उसका सभी अभिनन्दन करते हैं।
-प्रस्तुतकर्ता मनमोहन आर्य (१९-१-२०२५)