गुल खिलायेगी किसी दिन ये शरारत आप की,
देखीये क्या-क्या कराती है हिमाक़त आप की।
शहर में दंगा हुआ,किस ने कराया राज़ है,
हां मगर हम पर अयां हैं,थी इमामत आप की।
गीत,ग़ज़लें,शेर,नज़में,सब पढ़ीं हम ने मगर,
हो गये नाकाम,क्यों कि थी निज़ामत आप की।
सर झुकाए आ गये हम देखीये मक़तल तलक,
जानती है जब कि दुनिया,थी बगावत आप की।
आज भी ओहदा वही है आप का दरबार में,
जान कर के भी,कि है शह से अदावत आप की।
क्या सफ़ाइ दे भला कोइ अमीरे शहर को,
जंग का एलान हमसे,और दावत आप की।
इत्र की शीशी,किताबें,सूखे गुलदस्ते नदीम,
आज भी महफ़ूज़ है सारी अमानत आप की।
नदीमअब्बासी “नदीम”
गोरखपुर ॥