ग़ज़ल
हम प्यार जैसी शै की तिजारत न कर सके।
इक बेवफ़ा के दिल पे हुकूमत न कर सके।।
होटो पे ले के प्यास भटकते रहे यहां।
लेकिन किसी नदी की इबादत न कर सके।।
उसकी इबादते कोई होती नहीं कुबूल।
जो अपने वालदैन की इज्ज़त न कर सके।।
वैसे तो साथ ले के चले सबको उम्रभर।
लेकिन कभी किसी से मोहब्बत न कर सके।।
अब क्या बताएं प्यार पे कितना यकीन था।
हम आज तक किसी से अदावत न कर सके।।
कोशिश तो बार बार हमारी रही मगर।
उनके क़रीब जाने की हिम्मत न कर सके।।
लाखों हवाले हमने दिए ढूंढ ढूंढ कर।
उनको पर अपनी बात पे सहमत न कर सके।।
विनोद उपाध्याय हर्षित