ग़ज़ल
मुश्क़िल था मरहला मगर आसान हो गया,
अपने ही घर में आज मैं मेहमान हो गया।
आफ़त का सबके वास्ते सामान हो गया,
जब से वो उस हवेली का दरबान हो गया।
छपवा के अपने नाम से मेरी बयाज़ को,
वो सिरफिरा भी साहब-ए-दीवान हो गया।
खादी पहन के देख लो मिल जायेगा जवाब,
कैसे स्याह रंग ज़ाफ़रान हो गया।
वो तो समझ चुका था,न लौटूँगा अब कभी,
देखा जो आज सामने हैरान हो गया।
बाज़ू पे पर नहीं हैं,मगर उड़ रहा है वो,
अल्लाह जाने कौन मेहरबान हो गया।
दुनिया कहेगी बाद मेरे देखना नदीम
तुम क्या गये कि शहर ये वीरान हो गया।
नदीम अब्बासी “नदीम”
गोरखपुर॥