शीर्षक:- हिसाब क्या देता 

उर्वर अपनी खामियों का हिसाब क्या देता,

इल्जाम सारे ग़लत थे तो जवाब क्या देता।

बहकी हवाओं में मुकम्मल रहा इल्जामों का सफर,

नफ़रत ए शहर ये, मुसाफिर को भला क्या देता।

दौरें मतलब में भी ओ ख्वाब पाल रक्खा था,

ऐसे खलन में ओ ख्वाबों का सार क्या देता।

उर्वर हर रोज़ गुज़र रहा था नफरतों के शहर से,

फिर ऐसे दौर में, फरिश्तों को पनाह क्या देता।

गुज़रे इस दौर में, कुछ खामियां रही होगी,

वरना लोगों को उर्वर मसवरा तू क्या देता।

डॉ आशीष मिश्र उर्वर

कादीपुर, सुल्तानपुर

उत्तर प्रदेश

मो. 9043669462

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