/
अनुराग लक्ष्य, 8 जुलाई
सलीम बस्तवी अज़ीज़ी
मुम्बई संवाददाता।
आज इस्लामी साल का पहला महीना और पहला दिन है। पूरी दुनिया में किसी भी मज़हब को यह मर्तबा नहीं हासिल है, जिसका पहला महीना भी कुर्बानी से शुरू होता है और आखरी महीना भी कुर्बानी से।
आखरी महीने में हज़रत ए इब्राहीम अलहिस्सलम ने अल्लाह की राह में अपने बेटे हज़रत ए इस्माईल अलैहिस्सलाम की कुर्बानी पेश की। और पहले महीने में नेवसए रसूल सुलतानूस शोहदा हज़रत ए इमाम ए हुसैन ने करबला के तपते रेगिस्तान में अल्लाह की खुशनूदी और रज़ा के लिए अपने तमाम कुनबे के साथ खुद को भी इस्लाम की मुहाफिजत में अपने आपको कुर्बान कर दिया, और शहादत का जाम पिया। इसी लिए दुनिया आज तक यह कहती है कि,
,, यजीद मर गया कोई नाम नहीं लेता है,
हुसैन आज भी ज़िंदा हैं इस ज़माने में ,,,
चौदह सौ साल पहले करबला के मैदान में त्वारीख़ ने जो अपनी आंखों से देखा, उसे रहती दुनिया तक कभी भुलाया नहीं जा सकता। वोह पानी और प्यास की जंग नहीं थी, बल्कि वोह जंग हक और बातिल की थी, जिसपर इमाम ए हुसैन मेरे रब के मीज़ान पर खरे उतरे। साथ ही इस्लाम के परचम को हमेशा हमेशा के लिए आसमान की बुलंदियों तक फहरा दिया। जो कभी किसी भी ज़ुल्म और ज़ालिम के सामने झुक नहीं सकता। इमाम ए हुसैन के इसी बुलंद किरदार से मुतआसिर होकर मैं सलीम बस्तवी अज़ीज़ी आज यह कहने के लिए मजबूर हूं कि,
,,, जो है परचम हमारा ऐसा परचम हो नहीं सकता
खड़ी हो मौत भी तो हौसला कम हो नहीं सकता
मिटा दे जो मेरे इस्लाम को दुनिया के नक्शे से
मेरा दावा है ऐसा कोई भी बम हो नहीं सकता,,,
शायद इसी लिए करबला के मैदान में इमाम ए हुसैन का जो खून टपका था, वोह उसी खून की तासीर है जो आज चौदह सौ साल बाद भी इस्लाम का परचम पूरी दुनिया में अपनी आन बान और शान से लहरा रहा है, और कयामत तक लहराता रहेगा।