👁️ *ओ३म्*👁️
📚 ईश्वरीय वाणी वेद 📚
*ओ३म् पर ऋणा सावीरध मत्कृतानि माहं राजन्नन्यकृतेन भोजम्। अव्युष्टा इन्नु भूयसीरुषास आ नो जीवान् वरुण तासु शाधि।।*
।। ऋग्वेद २/२८/९।।
🦜 *मंत्रार्थ*🦜
हे वरुण! अर्थात् सृष्टि संविधान के शासक परमात्मा 🪼 मत् कृतानि = मेरे किए हुए 🪼 ऋणा= ऋणानि ऋणों को 🪼 पर सावि:- परा असावी = दूर कर दीजिए। मैं 🪼 अन्यकृतेन = दूसरों की कमाई का 🪼 मा भोजम् = न खाऊं। 🪼 भूयसी: उषास : = बहुत सी उषाएं अर्थात प्रातः कालीन सुख देनेवाली मनोवृत्तियां 🪼 इत नु = वस्तुत: 🪼 अव्युष्टा:= प्रकाश और सुख रहित ही प्रतीत हुआ करती हैं। हे वरुण देव! 🪼 हे वरुण देव! 🪼 न:अस्मान जीवान् = हम जीवों को 🪼 तासु उष:सु = उन ऊषाओं में 🪼 आ-समन्तात् = पूर्ण रीति से 🪼 शाधि = अनुशिष्ट कीजिए अर्थात् हमको ऋणों से मुक्त कीजिए।
🖋️ *मंत्र की मीमांसा*🖋️
इस पावन ऋचा में सृष्टि में आने के अनेक प्रयोजनों में एक प्रयोजन यह भी बताया है कि मानव योनि *ऋण चुकाने का एक अवसर* परमात्मा की ओर से है। संपूर्ण सृष्टि का ऋण प्रत्येक मानव पर है क्योंकि ईश्वर प्रदत्त सभी सुख -सुविधाएं मानव मात्र को *निशुल्क* प्रदान की गई हैं। *ब्रह्माण्ड का कोई टैक्स* परमात्मा किसी मानव से नहीं लेता। इस ऋण को चुकाना ही पड़ेगा। मगर *चार्वाक जैसे नास्तिकों* ने भोले भाले मनुष्यों को अपनी वाक् पटुता से ऋण लेने के फायदे मनुष्यों को बतायें हैं।वो कहता है।
*यावज्जीवेत् सुखं जीवेत् ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्।*
*भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुत:।।*
अर्थात् जब तक जियो सुख से जियो। ऋण लेकर घी पियो।जब मर जाओगे तो देह भस्म है जायेगी।तुम मरकर वापस नहीं आओगे। जिसने तुम को कर्ज दिया है वह किससे वसूल करेगा ?
अब जरा 📚 ईश्वरीय वाणी वेद 📚 क्या कह रही है गंभीरता से विचार करो! मनुष्य जिस परिस्थिति में जन्म लेता है उसमें यह असंभव है कि वह किसी का ऋण न लेवें। सम्भव केवल इतना है कि *जिनका ऋण ले उनका ऋण चुका दे*
मंत्र के इस पद को ध्यान से पढ़ें *अव्युष्टा इन्नु भूयसीरुषास:* अर्थात् उषाकाल के आते ही पशु पक्षी सबके मन में आनंद की लहरें उठने लगती हैं।कमल खिलने लगते हैं। परंतु *यह आनंद और प्रकाश उन्हीं को मिलता है जो ऋण -रहित या ऋण मुक्त हैं*
ऋणी व्यक्ति को तो वह रात ही अच्छी लगती हैं जब वह कहता है चलो अब सोओ! रात में कोई ऋण मांगने नहीं आयेगा । थोड़ी देर ही सही।ऋणी मनुष्य सो जाता है परंतु ज्यों ही आनंद मयी उषाकाल आ जाती है जहां सारा *ब्रह्माण्ड मस्त रहता वहीं ऋणी व्यक्ति उदास* हो जाता है ।
वेद की इस बात को एक कहानी से समझें!
एक पिता ने अपने बच्चे से कहा।कल तुमको *जलेबी* खिलायेंगे! बच्चा बोला जलेबी क्या होती है? पिता बोला जिसको बनाने में हजारों आदमियों का हाथ लगता है। प्रातः काल उठते ही बच्चा कहने लगा पिताजी *जलेबी -जलेबी-जलेबी* ! पिता ने दुकान से जलेबी लाकर खिला दी। बच्चा बोला पिताजी आप कहते हैं जलेबी बनाने में हजारों हाथ लगते हैं मगर मैंने तो देखा *१०लोगों के भी हाथ* नहीं लगते?
पिता बोला देखो! जलेबी आटे की बनती हैं।आटा गेहूं का बनता है। गेहूं को किसान बोता है।अब जरा सोचो तो सही कि खेत जोतने और गेहूं बोने से लगाकर आटा तैयार होने तक कितने आदमियों के हाथ लगे होंगे?,
इतना ही नहीं *घी* के विषय में सोचो। फिर *चीनी* का नंबर आयेगा। फिर यह भी सोचना पड़ेगा कि भट्टी में जो आग जलती है उसके लिए *कितनी लकड़ी* लगती होंगी ?
इतना ही नहीं जिस *कड़ाही* में जलेबी बनती है उस लोहे को निकालने से कड़ाई बनाने में कितने हाथ लगे होंगे? कितने *कारखाने* लगे होंगे? यह सुन तो बालक के होश उड़ गए।
अब आप सोचें *एक जलेबी* बनाने में कितने हाथ लगे होंगे और सभी जलेबी खाने वाले *उनके ऋ्णी* हैं।यह ऋण तो तभी छूट सकता है जब हम भी *देश या जाति के उद्योगों में भरसक यत्न करें और हमने दूसरों से ऋण लिया है उसी प्रकार हम भी दूसरों को उसका बदला चुका सकें ।
मंत्र का अगला पद भी विचारणीय है।
*माहं राजन् अन्यकृतेन भोजम्* अर्थात् हे ईश्वर! हम दूसरों की कमाई न खाएं, अपितु जो कुछ उपभोग हमको प्राप्त है उनमें हमारा भी पूर्ण भाग हो तो संसार के समस्त *कष्ट* समाप्त हो जायेंगे!
अब फैसला आपके हाथ में है आप *नास्तिक, कुटिल,चतुर चार्वाक* को अपना आदर्श मानते हैं या 📚*ईश्वरीय वाणी वेद*📚 के पद् चिह्नों पर चलकर ऋणमुक्त होकर अपना मानव जीवन सफल करेंगे।
आचार्य सुरेश जोशी
🌹 *वैदिक प्रवक्ता*🌹