भारत में चुनाव सुधार ः एक तात्कालिक आवश्यकता

 

भारत के लोकसभा चुनाव की प्रक्रिया
4 जून को मतगणना के साथ सुचारू रूप से संपन्न हो गई। मानव इतिहास की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक कवायद तब ज्यादा अहम हो जाती है, जब कहीं से भी कोई हिंसा की खबर न आये । भारत के अट्ठारहवें लोकसभा चुनाव में लगभग 97 करोड़ मतदाता थे जिसमें से 642 मिलियन मतदाताओं ने अपने मत का प्रयोग किया। मतगणना के पश्चात जो परिणाम प्राप्त हुए हैं, उससे यह स्पष्ट हो गया है कि हम पुनः गठबंधन वाले सरकार के युग में आ गए हैं।

लोकसभा चुनाव पर मतदाताओं की संख्या को लेकर भारत के मुख्य चुनाव आयुक्त ने कहा कि यह एक विश्व रिकॉर्ड है। यह सभी G-7 देशों के मतदाताओं का डेढ़ गुना तथा ई0यू0 के 27 देशों का ढाई गुना है। उनके अनुसार इस लोकसभा चुनाव में लगभग 10000 करोड़ की जब्ती हुई है जिसमें नगद ,शराब, ड्रग्स, फ्रीबीज आदि अवैध सामग्रियां शामिल है। यह जब्ती 2019 की तुलना में तीन गुना अधिक है।
संपूर्ण चुनावी अवधि में तथा उसके पूर्व समय -समय पर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन पर संदेह व्यक्त किया जाता रहा है तथा मतदाताओं को भी गुमराह किया जाता रहा है। ऐसे में यह आशा बंधती है कि सभी राजनैतिक दल , इनफ्लुएंसर और बुद्धिजीवी वर्ग अब ईवीएम की प्रासंगिकता पर प्रश्न नहीं खड़ा करेंगे। मतदान प्रक्रिया को संपन्न करने हेतु भारत द्वारा विकसित ईवीएम एक महत्वपूर्ण उपकरण है। हमें मत पत्रों के द्वारा मतदान की प्रक्रिया की मांग नहीं करनी चाहिए।हां यदि किसी ईवीएम में मतों को लेकर संदेह तो प्रत्याशी संबंधित मशीन के वीवीपैट के गिनती की मांग कर सकता है, पर ऐसे मांगों की संख्या निर्धारित होनी चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय में भी अभी हाल ही में इसी तरह का निर्देश जारी किया है। ऐसा करके हम चुनाव सुधार की प्रक्रिया को आगे बढ़ायेंगे। चुनाव सुधार एक अनवरत प्रक्रिया है, जिसमें निरंतरता स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव के लिए लाजिमी है।

मतदाता,राजनैतिक दल, मतदान प्रक्रिया तथा उससे संबंधित गतिविधियों को अंजाम देने वाली संस्थाएं यथा चुनाव आयोग आदि इसके मुख्य घटक है। इन उपरोक्त घटकों से संबंधित मुद्दों पर निरंतर चिंतन मनन होते रहना चाहिए। कई छोटे बड़े मुद्दे हैं जिन पर विचार करना अत्यंत आवश्यक है जैसा कि चुनाव आयोग ने यह माना कि प्रचंड गर्मी में चुनाव करवाना उचित नहीं है बल्कि इसे अप्रैल के अंत तक संपन्न करा लिया जाना चाहिए। पर मेरे हिसाब से चुनाव अधिकतम अप्रैल के प्रथम सप्ताह में ही संपन्न हो जाये तो ज्यादा सहूलियत होगी। क्योंकि प्रचंड गर्मी में चुनाव होने के कारण हमारे अनेक मतदान कर्मी अपनी जान से हाथ धो बैठे।

मतदान प्रक्रिया को संपन्न कराने में मतदानकर्मियों की भूमिका रीढ़ की तरह होती है। ड्यूटी लगाने की प्रक्रिया पारदर्शी न होने के कारण मतदान कर्मियों को जोखिम का सामना करना पड़ता है।जिला निर्वाचन कार्यालय द्वारा न केवल इस संदर्भ में मनमानी किया जाता है बल्कि ड्यूटी कटवाने को लेकर वहां भ्रष्टाचार भी होता है। ऐसे में ड्यूटी करने योग्य व्यक्तियों को भी छोड़ दिया जाता है। उसके बदले अस्वस्थ तथा नवजात बच्चों की मां को भी ड्यूटी में लगा दिया जाता है। इससे अनेक तरह की समस्याएं खड़ी होती है।कभी-कभी तो जान पर भी बन आती है। चुनाव लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व है। यह केवल नेताओं के लिए नहीं होना चाहिए बल्कि मतदान कर्मियों के लिए भी होना चाहिए। सिर्फ सरकारी कर्मचारियों को मतदान प्रक्रिया में शामिल करने से हो सकता है कि मतदान के लिए आवश्यक कर्मियों की संख्या कम पड़ जाती हो। अतः उसके लिए हमें अलग विकल्प की तलाश करनी चाहिए। जैसे संविदा आदि पर कार्यरत कर्मचारियों को भी शामिल किया जाने चाहिए। इसी तरह मान्यता प्राप्त निजी संस्थाओं के उन कर्मचारियों की सेवाएं हमें लेनी चाहिए जो सरकार द्वारा कहीं न कहीं से संबद्ध है।कुल मिलाकर कहने का तात्पर्य है कि मतदान कर्मियों की संख्या पर्याप्त रूप से रखनी चाहिए तथा जो मतदान प्रक्रिया में भाग लेने में असमर्थ हैं, उन्हें मतदान प्रक्रिया से छूट मिलनी चाहिए। इसके लिए हमें कुछ क्राइटेरिया विकसित करनी चाहिए तथा वह आधार पूरी तरह पारदर्शी एवं तकनीकी पर आधारित हो जिससे पक्षपात का आरोप न लगे।

मतदान कर्मियों के साथ- साथ मतदान केंद्रों की सुविधा भी एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। अधिकतर मतदान केंद्रों की दशा अस्वास्थ्यकर होती है तथा वहां पर बुनियादी सुविधाओं का अत्यंत अभाव होता है। परंपरागत रुप से अधिकतर मतदान केंद्र स्कूल ही होते हैं। अतः उसे पोलिंग बूथ निर्धारण करते समय संबंधित निरीक्षण कर्ता को यह विशेष ध्यान रखना चाहिए कि वहां उतनी सुविधा अवश्य मौजूद हो जिससे पोलिंग पार्टी को सहूलियत मिले। अगर किसी मतदान केंद्र पर आधारभूत सुविधाएं नहीं है तो यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि वहां अस्थाई अरेंजमेंट किया जाए । ठीक वैसे ही जैसे वर्तमान में धार्मिक मेलों तथा अनेक प्रवचनों के दौरान किया जाता है। मतदान कर्मियों को मिलने वाला पारश्रमिक भी वर्तमान व्यवस्था के अनुसार मामूली है। उसे भी बढ़ाने की आवश्यकता है।

लोक लुभावन वादे अथवा फ्रीबीज एक प्रमुख राष्ट्रीय चुनावी मुद्दा है। हम सबको पता है कि राजनीतिक दल लोकलुभावन वादे करके सत्ता में येन केन प्रकारेण आना चाहते हैं। जब वह सत्ता में आ जाते हैं तो उसे पूरा करते हैं जिससे सरकार की वित्तीय सेहत पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। वह वैसे वादे भी कर देते हैं जिन्हें वह पूरा भी नहीं कर पाते है। जैसा कि कांग्रेस पार्टी द्वारा पिछले लोकसभा चुनाव में न्याय योजना तथा वर्तमान लोकसभा चुनाव में गारंटी स्कीम के रूप में महिलाओं को ₹100000 वार्षिक देने, राजस्थान तथा पंजाब आदि राज्यों में देखा गया। इसके लिए हमें कुछ स्पष्ट रुख अपनाना होगा। सर्वप्रथम किसी राजनीतिक दल द्वारा लोक लुभावना वादों को पूरा न करना जनता के साथ धोखाधड़ी माना जाना चाहिए। इसके लिए राजनीतिक दलों पर कार्रवाई होनी चाहिए। कार्यवाही के रूप में उनसे यह चुनाव के दौरान ही पूछा जाना चाहिए कि जो वह वादा कर रहे हैं ,कैसे उसे पूरा करेंगे? यदि वह सही से नहीं बता पाते हैं तो उन्हें यह स्पष्ट निर्देश देना चाहिए कि आप उसे वादे को अपने मेनिफेस्टो और चुनावी प्रचार तंत्र से हटा लीजिए। एफआरबीएम एक्ट 2003 के अंतर्गत सभी राज्यों के लिए राजकोषीय घाटा की एक सीमा निर्धारित की गई है। चुनाव आयोग को वित्त आयोग तथा सरकार के माध्यम से उसकी एक ऊपरी सीमा भी निर्धारित करनी चाहिए उसके ऊपर यदि किसी राज्य का राजकोषीय घाटा है तो उसे किसी भी हालत किसी प्रकार के लोकलुभावन वादे करने की छूट नहीं मिलेगी। जिस तरह विश्व व्यापार संगठन ने सब्सिडी के संदर्भ में विभिन्न श्रेणियां बनाई है। उसी तरह लोक लुभावना वादों के लिए भी श्रेणियां बनाई जा सकती है। जिसमें कुछ श्रेणियां ऐसी होगी जहां लोक लुभावना वादे किए जा सकते हैं, कुछ ऐसे होंगे जिस श्रेणी में उल्लिखित विषय वस्तु पर आप वादा नहीं कर सकते। इन सब के साथ राजकोषीय घाटे के ऊपरी सीमा का हर हाल में पालन किया जाना चाहिए।

चुनाव सुधार के क्षेत्र में राजनीतिक दलों का वित्तीयन एक बड़ा चुनावी मुद्दा है। अभी हाल ही में इलेक्टोरल बांड जो कि राजनीतिक दलों को प्राप्त होने वाले चन्दे हेतु एक प्रमुख उपकरण था जिसे सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा अनुच्छेद 19 ए तथा सूचना के अधिकार अधिनियम का उल्लंघन करने के कारण असंवैधानिक घोषित कर दिया गया । सर्वोच्च न्यायालय ने 2018 में भारत सरकार द्वारा ले गए इलेक्टोरल वाण्ड को इस कारण गैर कानूनी घोषित कर दिया क्योंकि इसके तहत चंदा देने वालों की पहचान गुप्त रखी जा सकती है। सर्वोच्च न्यायालय का यह मानना है कि यह हर नागरिक का अधिकार है कि वह मतदान करते समय राजनीतिक दलों के वित्तीय स्रोत के विषय में जाने।इलेक्टरल बान्ड के असंवैधानिक घोषित करने के कारण हम पुनः पूर्व वाली स्थिति में आ गए हैं जिसके अंतर्गत राजनीतिक दल अधिकतर धन नगदी के माध्यम से प्राप्त करते हैं जो कि चंदा प्राप्त करने की अत्यंत संदेहास्पद व्यवस्था है। हम यह भी कह सकते हैं कि यह व्यवस्था इलेक्टोरल बांड की तुलना में और भी बदतर है क्योंकि इलेक्टोरल बांड के अंतर्गत चंदा देने वालों का आंकड़ा कम से कम एसबीआई के पास संग्रहित तो रहता था।हम सबको पता है कि राजनीति किस तरह से आज धन बल पर आधारित हो गयी है। याराना पूंजीवाद एक प्रमुख राष्ट्रीय समस्या बन चुका है। यह न केवल नीतियों के निर्माण की प्रक्रिया को अपने पक्ष में कर लेता है बल्कि जनहित में नीतियों के क्रियान्वयन के मार्ग में भी एक प्रमुख बाधा है। सर्वोच्च न्यायालय का यह फैसला हमें एक अवसर प्रदान करता है कि इस प्रमुख चुनावी मुद्दे का एक उचित हल खोज सके।सर्वप्रथम हमें यह समझना होगा कि राजनीतिक दलों की भी अपनी आवश्यकताएं हैं जिसको पूरा करने के लिए उन्हें धन की जरूरत पड़ती है। उसको ध्यान में रखते हुए यहां कुछ सुझाव एक श्रृंखला में दिया गया है। वर्तमान फिनटेक युग में चुनावी चंदे को पूरी तरह डिजिटल कर देना चाहिए अर्थात कैश को पूरी तरह प्रतिबंधित कर देना चाहिए। कॉर्पोरेट चंदे को भी पूरी तरह रोक देना चाहिए जैसा कि ब्राजील में है। स्टेट फंडिंग का रास्ता हमारे लिए उचित है। इसके लिए चुनाव आयोग का एक खाता आरबीआई में खुलना चाहिए जिसमें सभी लोग डिजिटल माध्यम से सहयोग कर सकते हैं। व्यक्तिगत चंदादाताओं से चंदा डिजिटल, इलेक्टोरल बांड जिसका निर्गमन आरबीआई करें तथा चेक के रूप में लिया जा सकता है। हमें कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी के तहत एक निश्चित प्रतिशत तय कर देना चाहिए ताकि इसके दायरे में आने वाली कंपनियां सीएसआर के रूप में चुनावी चंदा दे सकें। इसी तरह कॉरपोरेट और इनकम टैक्स के अंतर्गत भी स्वास्थ्य एवं शिक्षा अधिभार की तरह इलेक्टरल अधिभार की भी व्यवस्था कर देनी चाहिए ताकि पर्याप्त पैसा चुनाव आयोग के खाते में आ सके। इससे दो चीज होगी । सर्वप्रथम उद्योग जगत का सहयोग हमें चंदे के रूप में मिल जाएगा तथा कंपनियों को यह भय भी नहीं रहेगा कि सत्ता बदलने पर उनके ऊपर कार्यवाही हो सकती है , दूसरी चीज वित्तीय योगदान के माध्यम से चुनाव प्रक्रिया में नागरिक सहभागिता भी सुनिश्चित होगी। वह राजनीति को लेकर के ज्यादा गंभीर होंगे। राजनीतिक दलों का राष्ट्र तथा समाज के प्रति उत्तरदायित्व सुनिश्चित करने में और अधिक अच्छी भूमिका अदा करेंगे।मेरे हिसाब से आधा प्रतिशत सेस पर्याप्त होगा।चुनाव आयोग को राज्यानुसार लोकसभा तथा विधानसभा चुनाव में राजनीतिक पार्टियों के प्रदर्शन को आधार बनाते हुए धन का वितरण करना चाहिए। 50% फंडिंग सीटों के आधार पर तथा 50% फंडिंग वोट परसेंटेज के आधार पर राजनीतिक दलों को करना अच्छा रहेगा। निर्दलीय उम्मीदवारों के लिए भी हमें एक व्यवस्था बनानी पड़ेगी। टॉप 3 में आने वाले निर्दलीय उम्मीदवारों को भी चुनावी चंदा दिया जाना चाहिए।

भारत में पंजीकृत असंख्य दल है जो चुनाव लड़ते नहीं है अथवा केवल चुनाव लड़ने का दिखावा करते हैं । इस तरह की राजनीतिक दल केवल काले धन को सफेद करने का माध्यम है। ऐसे मुखौटा राजनीतिक दलों का पंजीकरण तुरंत रद्द कर देना चाहिए । चुनाव प्रक्रिया को अधिक से अधिक डिजिटलीकरण करके इसमें आवश्यक सुधार समय रहते किये जा सकते हैं। वर्तमान में‌ चुनाव आयोग द्वारा जारी किया एमपीएस एप तथा ऑनलाइन मतदाता पंजीकरण कुछ ऐसा ही सुधारात्मक रुख है।

अनिल वर्मा, असिस्टेंट प्रोफेसर मर्यादा पुरुषोत्तम पीजी कालेज रतनपुरा मऊ

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