ग़ज़ल
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गर इश्क़ जिंदगी से सुनो दूर हो गया।
तो आदमी ये मरने को मजबूर हो गया।
इंसान आज रोता है दरबार सांँपों के।
इस दौर का अजीब सा दस्तूर हो गया।
उर्दू ज़बाँ सवाल ये करती है रात दिन।
ग़ालिब भी आज इतना क्यों मजबूर हो गया।
देखो जमीं से आसमाँ कुछ भी नहीं है दूर।
इंसान से इंसान मगर दूर हो गया।
जिस्मों के मेले हैं जिस्मों के खेल हैं।
दिल की जगह क्यों जिस्म जो मंजू़र हो गया।
अंजना सिन्हा “सखी ”
रायगढ़