इसीलिये तो मुक़ाबिल तेरे खड़े हैं हम,
कि हादसों की निगहबानी में पले हैं हम।
मिटा दे ख़ुद को कि कुछ देर ठहर जायें अभी,
बहुत ज़माने तलक ख़ुद से ही लड़े हैं हम।
बना लो दूरियां हम से अभी ग़नीमत है,
हमारे मुंह न लगो क्यों की दिलजले हैं हम।
जवाब चाहें तो हम भाइयों का दे दें मगर,
ख़मोश इसलिये रहते हैं कि बड़े हैं हम।
जहां पे हाथ छुड़ा कर अलग हुये थे तुम,
वहीं पे आज तलक बुत बने खड़े हैं हम।
दरकती रिश्तों की दीवार अब सम्भलती नहीं,
सम्भाले फिर भी इसे देख लो खड़े हैं हम।
ये जानते हुये हम शर्त आज हार गये,
दिलेरी देखीये कि जीत पर अड़े हैं हम।
इसीलिये सभी झुक कर सलाम करते हैं,
तुम्हारे ताज में हीरे नही,जड़े हैं हम।
कोइ भी काट नहीं सूझती उस ख़ेमे को,
की अब की ऐसी नयी चाल जो चले हैं हम।
नदीम वक़्त ज़रा सख़्त हो गया वरना,
कोइ बता दे किसी से कभी डरे हैं हम।
नदीम अब्बासी “नदीम”
गोरखपुर।