🪵ओ३म् 🪵
📙 ईश्वरीय वाणी वेद 📙
*ओ३म् मित्रं हुवे पूतदक्षं वरुणं च रिशादशम् ।धियं घृताचीं साधन्ता।।
🌴 ऋग्वेद १/२/७🌴
🌼 मंत्र का पदार्थ 🌼
मैं विद्या का चाहने ( पूतदक्षं ) पवित्र बल सब सुखों के देने वा ( मित्रम् ) ब्रह्माण्ड और शरीर में रहने वाले सूर्य तथा ( रिशादशम् ) रोग व शत्रुओं के नाश करने वा ( वरुणं च ) शरीर के बाहर और भीतर रहने वाले प्राण और अपान वायु को ( हुवे ) प्राप्त होऊं , अर्थात बाहर और भीतर के पदार्थ जिस -जिस विद्या के लिए रचे गए हैं उन सबों का उस -उस के लिए प्रयोग करें।
🍁 मंत्र का भावार्थ 🍁
जैसे समुद्र आदि जल-स्थलो से सूर्य के आकर्षण से वायु द्वारा जल आकाश में उड़कर वर्षा होने से सब की वृद्धि होती है , वैसे ही प्राण और अपान आदि ही से वायु के निमित्त से व्यवहार विद्या की सिद्धि करके सबके साथ उपकार करना उचित है।
🏵️ मंत्र का सार तत्व 🏵️
इस मंत्र में पुनः सूर्य और वायु विद्या को जानकर उससे लाभ लेने की शिक्षा परमात्मा दे रहा है।अब जरा इस मिथक को समझते हैं।
ब्रह्माण्ड को ऊर्जा देने वाला भगवान का बनाया सूर्य है। शरीर को ऊर्जा देने वाला परमात्मा का बनाया प्राण है और मध्य में यानि अंतरिक्ष का जो पोल है उसमें बह रही भगवान का बनाया वायु है।इस प्रकार 🌸 सूर्य -वायु-प्राण🌸 तीनों को ईश्वर ने किसी प्रयोजन के लिए बनाया है मानव को चाहिए कि उस प्रयोजन को समझें!
सूर्य द्यु लोक से भूमि को तपाता है। समुद्र से जल का वाष्पीकरण कर आकाश में बादल बनाकर फिर भूमि में बर्षाता है।उस वर्षा के जल से अन्न, औषधियों का निर्माण होकर प्राणि मात्र को सुख पहुंचता है।
ठीक इसी प्रकार मनुष्यों को अपने भीतर के सूर्य जिसे प्राण कहते हैं जिसके मुख्य पांच भाग हैं 🌲 प्राण,अपान,उदान,व्यान व समान🌲 इनको अष्टांग योग से तपाकर ज्ञान जल की वर्षा कर मानव मात्र को मोक्ष सुख की परस्पर प्रेरणा करें।तभी इन 🥝 सूर्य विद्या व वायु विद्या का होना सार्थक है।
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आचार्य सुरेश जोशी
*वैदिक प्रवक्ता*
☎️ 7985414636☎️