आज मदर्स डे है,,,,,,, उठो गंगा के ऐ बेटों तुम्हें कुछ कर दिखाना है, जो पहले थी वही गंगा यहां अब फिर बहाना है

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अनुराग लक्ष्य, 12 मई
सलीम बस्तवी अज़ीज़ी,
मुम्बई संवाददाता ।
,आंचल वोह मेरी मां का जब से छूट गया है,
ऐसा लगा कि सारा जहां रूठ गया है
इस दर्द को किन लफ्ज़ों में कैसे करूं बयां
इक तारा आसमां का जैसे टूट गया है,
जी हां, आज बेशक मदर्स डे है और पूरी दुनिया कहीं न कहीं अपनी मांओं को किसी न किसी रूप में याद कर रहा है। और करना भी चाहिए क्योंकि कुरआन, वेद पुराण और गीता से भी हमें यही संदेश मिलता है, कि मां के कदमों में जन्नत है।
लेकिन क्या आपको पता है कि इस मां के एलावा भी हमारी जीवन दायनी कुछ और भी माएं इस सरजमीन पर हैं, जिन्हें हम गंगा और यमुना के नाम से जानते हैं। आप सोचिए कि अगर इन मांओं का वजूद इस धरती से खत्म हो जाए तो क्या होगा। शायद हम खतरे में पड़ जायेंगे, शायद हमारा वजूद भी खतरे में पड़ सकता है।
समय आ गया है कि इस सच्चाई को समझने के लिए हमें अपनी जीवन दायिनी मांओं के दर्द को भी समझना पड़ेगा कि नदियां किस तरह खतरे में हैं। बढ़ते पलूशन और पर्यावरण की रक्षा में हमें आना होगा, तभी हम अपनी इन जीवन दायिनी मांओं को बचा सकते हैं।
, उठो गंगा के ऐ बेटों तुम्हें कुछ कर दिखाना है
जो पहले थी वही गंगा यहां अब फिर बहाना है
समय वोह आ गया है कि लहू अपना बहांकर हम
किसी भी हाल में गंगा को मरने से बचाना है,
इस संबंध में पर्यावरण विध और ग्लोबल ग्रींस के अध्यक्ष श्री संजय पुरुषार्थी से जब बात चीत हुई तो उन्होंने कहा कि,पेड़ पानी और जंगल यह तीन चीज़ें ऐसी हैं जिनका ज़िंदा रहना मानव जाति के लिए उतने ही जरुरी हैं, जितनी हमारी सांसों का चलना। हमें तो यह नहीं लगता कि जिस तरह से जंगल कट रहे हैं, नदियां गंदे नाले नाली में तब्दील हो रहीं हैं, मनुष्य का जीवन सुरक्षित है, ऐसी सूरत में सारी मानव जाति, पूरी इंसानियत का यह दायित्व बनता है कि हम जिस तरह अपनी जन्म देने वाली मांओं का आदर करते हैं, उसी तरह हमें इन जीवन दायिनी मांओं का भी आदर करना चाहिए तभी हम इस धरती पर ज़्यादा दिन तक एक सोवस्थ और सुरक्षित जीवन जी सकते हैं।
इस अवसर पर उन्होंने प्रयाग राज के कवि सोवर्गीय नंदल हितैषी के इस मुक्तक से समाज को एक नई दिशा देने के कोशिश की।
, ठूंठ से जुड़तो गए हम बहुत कुछ हमसे कटा है
आवरड संवेदना का इसलिए हमसे हटा है
जाने कबसे काटते ही आ रहे हैं हम जंगलों को
पर, हमारा जांगलीपन क्यों नहीं अब तक कटा है,

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