ग़ज़ल,
सींच के अपने खून से हमने गुलशन को महकाया है,
नफरत के बाज़ार में हमने प्यार का दीप जलाया है,,
कहने को तो हमने भी कुछ शेर ग़ज़ल के कह डाले,
लेकिन मिरो-ग़ालिब से कुछ हमने रंग चुराया है,,
कड़वा कड़वा थूक के सबने मीठी मीठी ही खाई,
कौन है जो गुलशन में जाकर खारों को अपनाया है,,
वैसे तो दुनियाए-अदब में सिन्फे-सुखन होते हैं बहुत,
उसमें से ग़ज़लें कहने का मैंने फन अपनाया है,,
एक से बढ़ कर लोग बड़े हैं नाम भला गिनवाना क्या,
“हमने भी इस शह्र में रह कर थोड़ा नाम कमाया है”,,
एक नज़र से देखा सबको आई नहीं तफरीक़ हमें,
कौन है हिन्दू कौन मुसलमाँ अपना कौन पराया है,,
ख़ालिक़ या मख्लूक़ से कोई हमको “अक्स”नहीं शिकवा,
इस फानी संसार मे हमने जो बोया वो पाया है,,
✍️अक्स वारसी