फिर मुस्कुराना

एक दिन था चल पड़ा, 

गृह त्याग कर।

दो जून की रोटी का,

संकल्प लेकर।

सोचने फिर २ लगा,

वह राह में।

पिण्ड की बातें घनी,

और प्यार की।

अटपटी बातें बड़ी,

संसार की।

प्रेम के रिश्ते सभी,

नेपथ्य में कर।

चल पड़ा है त्याग सब,

इक उपल होकर।

पर सोचता है क्या कभी,

वह फिर मिलेंगे।

क्या कभी फिर बैठकर,

बातें करेंगे।

क्या कभी सुन पायेंगे,

बाग में मनहर तराने।

दोस्तों से अटपटे,

क़िस्से पुराने।

उम्र में थोड़े मगर,

कितने सयाने।

आभाव के वे रम्य दिन,

क्या फिर मिलेंगे।

तितलियों से क्या कभी,

फिर मेल होगा।

क्या कभी फिर खेल,

पायेंगे सतोला।

क्या कभी मिल पायेंगे,

विन्दास होकर।

क्या देख पायेंगे पुराना,

हाट मेला।

क्या नीम की डाली में,

फिर झूला पड़ेगा।

दोस्तों के साथ फिर क्या,

खेल कंचों का भी होगा।

क्या कभी अमराईयों में,

भाव का फिर मेल होगा।

चिट्ठी रसा भी क्या कभी,

दूर से अपना लगेगा।

क्या कभी फिर रूठ जाना,

हो सकेगा।

क्या कभी फिर स्वयं से,  

मान जाना हो सकेगा।

क्या कभी बेबात पर,

हँसना भी होगा।

क्या कभी फिर लौटकर,

वचपन मिलेगा।

क्या थोड़ी सी ख़ुशियों से,

फिर चेहरा खिलेगा।

मिल गया तो पूछूँगा,

कोई तराना।

छुट पने के ही तरह,

फिर मुस्काराना।

 

बाल कृष्ण मिश्र “कृष्ण”

ग्राम कनेथू बुजुर्ग ज़िला बस्ती 

उत्तर प्रदेश 

०२.०६.२०२३

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