कुछ तो मजबूरियां रही होंगी, यूं ही कोई बेवफा नहीं होता

अनुराग लक्ष्य, 4 सितंबर ।
सलीम बस्तवी अज़ीज़ी,
मुंबई संवाददाता ।
जी हां, आज की बात यहीं से शुरू होती है कि ,, कुछ तो मजबूरियां रही होंगी यूं ही कोई बेवफा नहीं होता,, पिछले कुछ दिनों से धरावी से वडाला की सियासी सरगमियां अचानक तेज़ हो गईं, जब से यह खबर जनता में आम हुई कि कांग्रेस के तीन पूर्व नगर सेवकों ने शिंदे साहब का दामन थाम लिया।
मेरा मानना है कि सियासत दानों को भी अपनी जिंदगी होती है, अपने कुछ सिद्धांत होते हैं, और समाज के प्रति उनकी कुछ जिम्मेदारियां भी होती हैं। ऐसे माहौल में अगर वोह अपने कार्यकाल में पार्टी दोवारा अपनी जिम्मेदारियों को कर पाने में असमर्थ पाता है तो उसे किसी और दहलीज की कुंडी खटखटाना ही पड़ता है।
यह बात मैं इस दावे से कह सकता हूं कि जब एक ठेले वाले से लेकर दुकानदार, बिजनेसमैन, बड़ी बड़ी कंपनियां अपने नफे और फायदे को लेकर नित नए रूल्स और नियम लागू कर सकते हैं तो एक पॉलिटिशियन क्यों नहीं। क्या यह नियम और शर्तें उन नगर सेवकों पर भी लागू नहीं होता, जिन्होंने अपनी पार्टी छोड़कर किसी और पार्टी में अपना भविष्य तलाश रहे हैं।
और यह आज देश की राजनीति में कोई पहली बार तो नहीं हुआ कि एक सियासत दां किसी एक पार्टी को छोड़कर किसी दूसरी पार्टी में न गया हो, यह चरित्र तो भारतीय राजनीति का बरसों से रहा है। इस लिए कांग्रेस के जिन पूर्व नगर सेवकों ने यह कदम उठाया है, ज़ाहिर सी बात है कि उन्हें भी अपना भविष्य तय करने की आज़ादी है। ताकि वो अपने चाहने वाली जनता और अपने छेत्र का विकास सुचारू रूप से कर सकें।

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