शंकर सुवन सुख सदन स्वामी ज्ञान हमको दीजिए ।
अनभिज्ञ हूँ मैं काव्य में फिर भी शरण में लीजिए ।
हे भारती तव कंज पद में सिर झुकाता हूँ सदा
करि आगमन अतिशीघ्र ही उर में विराजो शारदा ।
मित्रों प्रथम यह समझ सको किस हेतु आये हो यहाँ
सुन्दर सुखद सुख भोगकर क्या तत्व पाये हो यहाँ ।
भव सिन्धु कहते हो जिसे आनन्द सागर है नहीं
करके कृपा तुम पर अगर मिट जाँय नटनागर कहीं
शुभ कर्म करने के लिए विधि ने तुम्हे भेजा यहाँ
सोचो विचारो हृदय में जाकर कहोगे क्या वहाँ
शुभ कर्म ही संसार में सब काल में सतसार है
शुभ कर्म से बढ़कर कहाँ दूजा यहाँ व्यापार है
अतएव यदि चाहो भजो शुभ कर्म कुछ करते रहो
निज धर्म पर चलते हुए दुष्कर्म से डरते रहो ॥
डा० वी के वर्मा