पाश्चात्य प्रभाव के बीच भारतीय संस्कृति और स्वधर्म के संरक्षण का आह्वान – डॉ नवीन सिंह 

पाश्चात्य प्रभाव के बीच भारतीय संस्कृति और स्वधर्म के संरक्षण का आह्वान – डॉ नवीन सिंह

बस्ती। तेजी से बदलते सामाजिक परिदृश्य और पाश्चात्य संस्कृति के बढ़ते प्रभाव के बीच भारतीय संस्कृति, परंपराओं और स्वधर्म के संरक्षण को लेकर चिंता व्यक्त की जा रही है। इसी क्रम में सनातन धर्म चेतना चैरिटेबल ट्रस्ट के प्रदेश उपाध्यक्ष प्रो. डॉ. नवीन सिंह ने समाज से आत्ममंथन करने और अपनी सांस्कृतिक जड़ों की ओर लौटने का आह्वान किया है।

प्रो. डॉ. नवीन सिंह ने कहा कि आज की स्थिति उस मानसिक रूप से गुलाम घोड़े की तरह होती जा रही है, जो कुर्सी से बंधा होने के कारण अपनी शक्ति और स्वतंत्रता को भूल चुका है। उन्होंने कहा कि हम अनजाने में ही पाश्चात्य संस्कृति के बंधनों में जकड़ते चले जा रहे हैं और अपनी परंपराओं, त्योहारों तथा जीवन मूल्यों से दूर होते जा रहे हैं।

उन्होंने भगवद्गीता के श्लोक “श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्” का उल्लेख करते हुए कहा कि भले ही स्वधर्म में कुछ कमियां हों, फिर भी वह परधर्म से श्रेष्ठ है। स्वधर्म में जीवन देना भी कल्याणकारी है, जबकि परधर्म भय उत्पन्न करता है। उनके अनुसार आज समाज में इस संदेश को व्यापक रूप से प्रचारित करने की आवश्यकता है।

प्रो. सिंह ने चिंता जताई कि आज लोग क्रिसमस, अंग्रेजी नववर्ष और वेलेंटाइन डे जैसे पाश्चात्य पर्वों को उत्सव के रूप में अपना रहे हैं, जबकि भारतीय नववर्ष, पंचांग, महापुरुषों की जयंती, पारंपरिक त्योहारों और बुजुर्गों के सान्निध्य से दूर होते जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि यह स्थिति भारत के लिए एक ऐसे सांस्कृतिक संकट का संकेत है, जिसका आभास समाज को अभी पूरी तरह नहीं हुआ है।

उन्होंने स्पष्ट किया कि सर्वधर्म समभाव भारतीय संस्कृति की आत्मा है, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि हम अपने धर्म, परंपराओं और पहचान को छोड़कर दूसरों का अनुकरण करने लगें। अपने गुरुभाई स्व. पंडित दिनेश चंद्र त्रिपाठी के कथन “विचारहीनः पशुभिः समाना” को उद्धृत करते हुए उन्होंने कहा कि आज आवश्यकता है कि प्रत्येक व्यक्ति स्वयं का मूल्यांकन करे—हम क्या हैं और किस दिशा में जा रहे हैं।

राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त और भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी के विचारों का उल्लेख करते हुए प्रो. सिंह ने कहा कि हमें अपने गौरव पर गर्व करना चाहिए और जो खोया है, उस पर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने समाज से संकल्प लेने का आह्वान किया कि पाश्चात्य त्योहारों को उत्सव के रूप में न मनाते हुए भारतीय नववर्ष चैत्र शुक्ल प्रतिपदा, राम नवमी, श्रीकृष्ण जन्माष्टमी जैसे पर्वों को पूरे श्रद्धा और उत्साह के साथ मनाया जाए।

अंत में उन्होंने कहा कि अब समय आ गया है कि हम पाश्चात्य चकाचौंध से बाहर निकलकर अपनी सांस्कृतिक पहचान को सहेजें और आने वाली पीढ़ियों को भारतीय मूल्यों से जोड़ें।