“नीम के छाँव तले खेलते मिलकर साथ, रामजी कनौजिया ,,,,,,,,
अनुराग लक्ष्य, 12 नवंबर
सलीम बस्तवी अज़ीज़ी
मुम्बई संवाददाता ।
रामजी कनौजिया मुंबई की उन चंद गीतकारों में से एक हैं जो देश समाज और राजनीति पर हमेशा अपनी कलम का जादू बिखेरते आए हैं।
साथ ही सामाजिक विसंगतियों पर भी अपनी उत्कृष्ट रचनाओं से समाज में नया संदेश भी देते आए हैं। इसी लिए आज मैं सलीम बस्तवी अज़ीज़ी उनकी एक खास नज़्म आपसे रूबरू करा रहा हूँ।
ना चिन्ता दुनियादारी की, क्या दिन था बेफिकर बचपन,
आज भी याद आती है, ओ नंगे पांव की मिट्टी,
बगीचे खेत,ओ खलिहान उड़ती धूल सड़कों की,
संग पढ़ते,कभी लड़ते, ओ नीम के छाँव की मिट्टी,
कहाँ हैं दिन ओ बचपन के, छलक जाती हैं तब आँखें,
रामजी याद आती है, कभी जब गाँव कि मिट्टी ।
(बचपन)
दोस्तों आज मैं एक खूबसूरत सी नज्म आप सबके हवाले करता हूँ,
नज्म का उन्मान है,
(वक्त गुजरा हुआ फिर लौटकर नहीं आता)
नज्म–दिल मेरा मुझको यही, बार बार समझाता,
वक्त गुजरा हुआ फिर लौटकर नहीं आता,
(1)-गये दिन बीत ,ओ बचपन के सुहाने कैसे,
रहे दिनरात, खिलौनों के दिवाने कैसे,
कभी जब घर से निकले,पढ़ने तो स्कूल गये,
कभी कुछ याद रहा तो, कभी कुछ भूल गये,
नीम के छाँव तले, खेलते मिलकर साथी,
शाम लड़ते तो, सबेरे ही सुलह हो जाती,
दिल मेरा मुझको, यही बार बार समझाता,
वक्त गुजरा हुआ, फिर लौटकर नहीं आता,
(2)-ना फिकर खुद की, ना घर की ,किसी झमेलों की,
आँख भर जाती,जब आती है याद मेलों की,
मिले छुट्टे तो, हॅथेली को चूँम लेते थे,
खाके रुपये में दो, मेला भी घूँम लेते थे ।