अनुराग लक्ष्य, 14 अक्तूबर
सलीम बस्तवी अज़ीज़ी
मुम्बई संवाददाता।
शह ए बगदाद के आका मेरे महबूब ए सुब्हानी,
दो आलम में भी हैं आला मेरे महबूब ए सुब्हानी ।
तेरे बिखरे करामत का किनारा मिल नहीं सकता,
ज़मीं बोली फलक गाया मेरे महबूब ए सुब्हानी ।।
ग्यारहवीं शरीफ के इस खास मौके पर पूरी दुनिया में शहंशाह ए बगदाद की याद में आज जगह जगह जश्न ए गौसुल वरा का एहतमाम कर रही है। और आशिकान ए बगदाद अपनी अपनी अकीदत के साथ पीरान ए पीर रोशन ज़मीर शहंशाह ए बगदाद की याद ताज़ा कर के आज की रात नज़र ओ न्याज का एहतमाम भी करेंगे, इसी लिए मैं सलीम बस्तवी अज़ी इसी सच्चाई और हकीकत को आपसे रू बरु कराने के लिए आज कुछ अपने चुनिंदा अशआर लेकर आपकी खिदमत में हाज़िर हो रहा हूं।
1/ जो दिन शोले उगले हों और रातें हो कयामत सी
वहां भी आपका साया मेरे महबूब ए सुब्हानी ।
2/ इश्क ए अहमद में दिल जो जालोगे तुम
मोमिनों खुल्द में घर बनाओगे तुम
नात कहने का फन जो तुम्हें आ गया
मिसल ए सूरज यहां जगमगाओगे तुम ।
3/ मुहब्बत को फिज़ाओं में चलो हम आम कर डालें
जो तूफाँ हैं ज़माने में उन्हें गुलफाम कर डालें
जिन्होंने ज़िंदगी का अक्स भी देखा नहीं अब तक
चलो यह ज़िंदगी अपनी उन्हीं के नाम कर डालें
4/कभी ज़माने में ऐसा भी कोई यार मिले
वफा के नाम पे हर रोज़ उससे प्यार मिले
गरीब मैं सही मेरा शहर न गरीब रहे
हमारे हाथों को कोई ऐसा कारोबार मिले
5/सलीम दिल की बहुत है ख्वाहिश कि शहर ए बगदाद मैं भी जाऊं,
सबब जईफी बनी यह अपनी बचा भी कुछ माल ओ ज़र नहीं है ।
6/ खुदा के कितने क़रीब होगा वोह बंदा सोचो ए मोमिनों तुम,
जिला दे मुर्दे जो ठोकरों से अब ऐसा कोई बशर नहीं है ।
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