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अनुराग लक्ष्य, 8 सितंबर
मुम्बई संवाददाता।
सलीम बस्तवी अज़ीज़ी।
ज़िंदगी जब दौड़ती है तो रगों में बहने वाला खून भी दौड़ता है, और इस दौड़ में कभी कभी ऐसा होता है, कि इंसान अपनी मंज़िल पा लेता है, लेकिन कभी कभी ऐसा भी हो जाता है कि इंसान अधूरे रह का मुसाफिर बनकर रह जाता है। लेकिन शुक्र है मेरे रब का और मेरे चाहने वालों का, जिनकी बेपनाह मुहब्बतें मेरे हिस्से में आईं। और मुंबई जैसी आर्थिक नगरी में आपका महबूब शायर सलीम बस्तवी अज़ीज़ी अपनी तमाम तर खूबियों के साथ आपसे रूबरू है।
1/ कैसी खुशी, कैसा है गम मैने कहां यह जाना
चलने को मैं चलता रहा, मेरा सफर अनजाना ।
2/ मेरा मुकद्दर मेरा है लोगों, उस पर किसी का ज़ोर नहीं
मैं टूट जाऊं, मैं झुक जाऊं इतना तो मैं कमज़ोर नहीं ।
3/ तू मेरे ख्वाबों में चला आता है अब भी
और मैं तेरी राहों से गुज़र भी नहीं पाता ।
4/ ऐ ज़िंदगी यह कैसा सुखनवर बना दिया
तन्हाइयों को मेरा मुकद्दर बना दिया ।
5/ सलीम बनकर ज़ेया फैले ज़मीन ओ आसमानों में
मेरी इस नात ए गोई को एक ऐसा मशगला दे दो
हबीबी या रसूलल्लाह मुझे इक सिलसिला दे दो
पहुंच जाएं तुम्हारे उम्मती सब खुल्द में एक दिन
हमारे हक में आका ऐसा कोई फैसला दे दो ।