🌳 ओ३म् 🌳
🌸 ईश्वरीय वाणी वेद 🌸
*ओ३म् अश्विना पुरुदंससा नरा शवीरया दिया। धिष्णया वनतं गिर:*
।। ऋग्वेद १/३/२।।
🍁 मंत्र का पदार्थ 🍁
हे विद्वानों! तुम लोग ( पुरुदंससा ) जिनसे शिल्प विद्या के लिए अनेक कर्म सिद्ध होते हैं। ( धिष्णया ) जो कि सवारियों में वेगादिको को तीव्रता उत्पन्न करने में प्रबल ( नरा ) उस विद्या के फल को देने वाले और ( शवीरया ) वेग देने वाली ( धिया ) क्रिया से कारीगरी में युक्त करने वाले योग्य अग्नि और जल हैं, वे ( गिर: ) शिल्पविद्या के गुणों को बताने वाली वाणियों को ( वनतम् ) सेवन करने वाले हैं इसलिए इनसे अच्छी प्रकार उपकार लेते रहो।
🌻 मंत्र का भावार्थ 🌻
शिल्प कला के कारीगरों को चाहिए कि तीव्र वेग वाली कारीगरी और अपने पुरुषार्थ से शिल्पविद्या की सिद्धि के लिए उक्त अश्वियों की अच्छी प्रकार से योजना करे।जो शिल्पविद्या को सिद्ध करने की इच्छा रखते हैं, उन पुरुषों को चाहिए कि विद्या और हस्तक्रिया से उक्त अश्वियों को प्रसिद्ध करके उनसे उपयोग लेवें।
🩸 मंत्र का सार तत्व 🩸
जो लोग धर्म को केवल मंदिरों की आरती। मस्जिदों की तकरीर। गिरजाघर की प्रार्थना व गुरुद्वारा के अरदास तक सीमित मानते हैं उनके लिए यह मंत्र प्रमाण दे रहा है कि वैदिक धर्म *वैदिक धर्म भौतिक, रसायन के आधुनिक विज्ञान के साथ अध्यात्म दर्शन का अद्वितीय संगम है*
वेद ही समस्त ज्ञान-विज्ञान का आदिमूल है।पाठक यह ध्यान अवश्य रखें कि जो ऋग्वेद की ऋचाएं हैं वो पदार्थ विद्या को शत-प्रतिशत परिलक्षित करती है जिसमें से इस मंत्र में शिल्प विज्ञान का अद्वितीय वर्णन है।इसी शिल्प विद्या को महर्षि अगस्त्य के आश्रम में *नल और नील* ने सीखकर सेतुबंध तैयार किया था समुद्र पर। अतः आओ *वेदों की ओर लौटो* ।
आचार्य सुरेश जोशी
*वैदिक प्रवक्ता*