अनुराग लक्ष्य, 20 मार्च
मुम्बई संवाददाता ।
सलीम बस्तवी अज़ीज़ी,
मुद्दत गुजर गई, कोई ऐसी खुशनुमा सुबह नहीं देखी, जिसमें सूरज अपनी तमाज़त के साथ हंसता और मुस्कुराता हुआ दिखाई दिया हो। साथ ही सुरमई शाम भी अपनी तमाम शोखियों के साथ खिलखिलाती नज़र आई हो। यह बात मैं इस लिए नहीं कह रहा हूं, कि मैं एक शायर हूं, अदीब हूं, और पत्रकार होने के साथ साथ एक गीतकार हूं, बल्कि मैं यह बात इस लिए कह रहा हूं कि लगभग डेढ़ अरब आबादी वाले देश भारत का मैं भी एक आम इंसान हूं। जिसने इस दर्द और कर्ब के धुंधलके को महसूस किया और तब यह बात ज़बान तक आई।
कौन हैं इसके जि़म्मेदार, क्या है इसके पीछे का सबब, कौन से हैं वोह अनसुलझे राज़ जो अपने सीने में धधकती हुई आग से पूरी इंसानियत को तार तार कर ने पर आमादा है। दिल रो रहा है, आँखें नम हैं, और ज़बान पर बस यह मेरे कुछ अश आर यूं ही तैरने लगते हैं कि,
1/ कैसे कैसे हादसे होने लगे हैं अब
जो ताल ए बेदार हैं सोने लगे हैं अब,,,
2/ लिक्खूं मैं कैसे ज़ुल्म को कि ज़ुल्म ही लगे
दुनिया के सारे ज़ुल्म तो होने लगे हैं अब,,,
3/ दुनिया के सारे पाप जब वोह करके थक गए
गंगा में अपने पाप को धोने लगे हैं अब,,,
4/ इंसानियत की पौध को मैं कैसे उगाऊँ
वोह नफरतों के बीज को बोने लगे हैं अब,,
5/ तुम अगली पीढ़ियों के मुहाफिज़ बनी ,सलीम,
पश्चिम की चकाचौंध में खोने लगे हैं अब,,,
,,,,,,,,, सलीम बस्तवी अज़ीज़ी,,,,,,,