तुम्हारे वास्ते मैं यह गुलाब लाया हूं, सलीम बस्तवी अज़ीज़ी

अनुराग लक्ष्य, 15 अक्टूबर
मुंबई संवाददाता ।
अपनी दमदार आवाज़ और दमदार कलाम के ज़रिए पूर्वांचल के कोहनूर शायर सलीम बस्तवी अज़ीज़ी हमेशा मंचों पर तालियां और वाहवाही के बीच अपना कलाम शोरोताओ तक पहुंचाते रहे हैं। आज उनके कुछ बेहतरीन कतात मुक्तक आप पाठकों की नज़र,,,
तालियों की गड़गड़ाहट से दबा जाता हूं मैं
शेर कहता हूं तो ग़ज़लों में समा जाता हूं मैं
हमने माना मीर ओ ग़ालिब का नहीं है दौर यह
फिर भी शौक़ ओ ज़ौक से अब भी सुना जाता हूं मैं,,,,,
तुम्हारे वास्ते मैं यह गुलाब लाया हूं
मुहब्बतों की यह दिलकश किताब लाया हूं
ज़माना देखके हैरान है, परीशां हैं
यह किसके वास्ते मैं महताब लाया हूं,,,,,
मैं जा रहा हूं मस्जिद सजदे में सर झुकाने
केयों दे रहे हो मुझको त्रिशूल और भाला
मंदिर की घंटियां भी बजने लगीं हैं देखो
जाओ, बुला रहा है, कबसे तुम्हें शिवाला,,,,
कुछ फूल भी ऐसे हुए जो खार हो गए
सस्ते कभी मंहगे यहां बाज़ार हो गए
तंग आ गए लड़ते हुए बेकारियो से जब
न चाहते हुए भी, गुनहगार हो गए,,,,
जिस भी कश्ती के मुहाफिज तुम बनो हरगिज़ उसे
सांस भी थम जाए गर न छोड़ना मझधार में
मंज़िलें उसको ही कदमों में ठहरतीं हैं ,सलीम,
जोड़ लेता है जो ख़ुद को वक्त की रफ्तार में,,,,,
,,,,, सलीम बस्तवी अज़ीज़ी,,,,

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