तुम चाँद बनो

तुम चाँद बनो मन आँगन में, 

और मैं चातक बन जाऊँ।

तुम वसंत सा खिल जाओ,

और मैं भँवरा बन आऊँ॥१

 

तुम चाँद बनो मन आँगन में, 

और मैं चातक बन जाऊँ॥

 

तुम छाओ बदली कजली सी,

मैं मन मयूर हो जाऊँ।

तुम पुरवाई बन कर लहको,

मैं डाली सा झुक जाऊँ॥२

 

तुम चाँद बनो मन आँगन में, 

और मैं चातक बन जाऊँ॥

 

तुम अब के फागुन रंग बनो,

और मैं पानी हो जाऊँ।

मैं गुलाल सा गाल पे रच के,

और इधर उधर इतराऊँ॥३

 

तुम चाँद बनो मन आँगन में, 

और मैं चातक बन जाऊँ॥

 

तुम मलिका बन कर आओ,

और मैं पराग बन जाऊँ।

आत्मसात् करके तुमको मैं,

जगह जगह फैलाऊँ॥४

 

तुम चाँद बनो मन आँगन में, 

और मैं चातक बन जाऊँ॥

 

तुम चन्द्रमुखी बन जाओ,

और मैं दर्पण बन जाऊँ।

तुम्हें बसा कर मन मंदिर में,

मैं सारा दिन हरषाऊं॥५

 

तुम चाँद बनो मन आँगन में, 

और मैं चातक बन जाऊँ॥

 

बाल कृष्ण मिश्र “कृष्ण” 

बूंदी राजस्थान 

२९.०८.२०२३

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