लगा था कुंभ नहाने गए थे चल कर के, रामजी कनौजिया

लगा था कुंभ नहाने गए थे चल कर के, रामजी कनौजिया,,,,,,

अनुराग लक्ष्य, 14 अक्टूबर

सलीम बस्तवी अज़ीज़ी

मुम्बई संवाददाता ।

कहते हैं कि साहित्य समाज का दर्पण होता है, इसी लिए साहित्यकार कभी कभी अपनी रचनाओं के माध्यम से ऐसी बात कह जाता है जो कोई आम इंसान नहीं कह सकता। इसी सच्चाई के साथ कुंभ में घटी घटना पर साहित्यकार रामजी कनौजिया ने अपनी शानदार समसामयिक रचना से समाज को आईना दिखाया है।

1/ लगा था कुंभ नहाने गए थे चल कर के,

कई शहरों से कई गांव से निकल कर के ।

2 / मचा भगदड़ तो जान बचाना हुआ मुश्किल,

न जाने कितने मरे पांव से कुचल कर के ।

3 / जिन्हें मतलब नहीं है कुछ भी दुनिया दारी से,

वोह वहां नाच रहे थे उछल उछल कर के ।

4/ किसी ने तन को ढका था, तो कोई नंगा था,

कहीं बहरूपिए थे भेष को बदल कर के ।

5 / लोग कहते हैं कि अफवाह ख़बर झूठी है,

वोह हादसा जो कई बार हुआ जल कर के ।

6 / भला हर बार क्यों वादे से मुकर जाते हैं,

हिसाब दे न सके आज तक वोह हल कर के ।

7 / झोलियाँ जिनकी भरीं , लौटे दुआएं लेकर,

बिछड़ गया जो रो रहा था हाथ मल कर के ।

8 / कलम भी रो पड़ी आँखों में अश्क भर आए,

गुज़र गई थी रात करवटें बदल कर के ।

9 / दर्द लिखता नहीं तो और भला क्या करता,

न दिल को रोक सका रह गया मचल कर के ।

10 / कभी भी वक्त बुरा बोल कर नहीं आता,

रामजी पांव को रखना ज़रा संभल कर के ।

लगा था कुंभ नहाने गए थे चल कर के,,,,,,,