साहित्य और सेवा के दीप हैं यमराज मित्र सुधीर श्रीवास्तव 

समाज की भीड़ में जब हर कोई अपने लिए दौड़ रहा हो, तब कुछ दुर्लभ आत्माएँ ऐसी होती हैं, जो दूसरों के लिए जीती हैं। आ. सुधीर श्रीवास्तव जी ऐसी ही एक पुण्य आत्मा हैं, जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन साहित्य और सेवा भाव के लिए समर्पित कर दिया।

उनके शब्दों में वह आंसू हैं, जो गरीबों की पीड़ा से टपकते हैं, उनके लेखन में वह करुणा है, जो समाज की व्यथा को जीकर आती है। विपरीत स्वास्थ्य और साधनहीनता के बावजूद उन्होंने कभी कलम को बेचा नहीं, कभी सेवा को व्यवसाय नहीं बनाया। शायद इसी लिए उनका जीवन साधनों से नहीं, सिद्धांतों से बड़ा है।

आज जब लोग अपनी रचनाओं से नाम और कमाई की दौड़ में लगे हैं, तब सुधीर जी ने हर पंक्ति को जनकल्याण के लिए लिखा। उनकी कविताएँ भूखे बच्चे की रोटी बनती रहीं, उनकी कहानियाँ बेबस माँ के आँसू पोंछती रहीं। पर विडंबना यह रही कि स्वयं उनके जीवन में कभी स्थायी कमाई का साधन नहीं रहा।

चेहरे पर मुस्कान, लेकिन भीतर दर्द की गहराइयाँ को सिर्फ महसूस किया जा सकता है। कितनी ही रातें अंतर्द्वंद्व के बीच सोकर गुज़ार दैते रहने के बावजूद कभी समाज को यह आभास तक नहीं होने दिया कि वह स्वयं संघर्ष में हैं। उन्होंने अपने दुःखों को ऐसे छुपाया, जैसे कोई माँ अपने बच्चों से अपनी भूख छुपाती है।

आज जब हम यमराज मित्र सुधीर श्रीवास्तव जी को देखते हैं, तो लगता है मानो युगों पुराना कोई तपस्वी हमारे बीच, हमारे साथ चल रहा हो—चेहरे पर आत्मसंतोष, आँखों में सेवा की ज्योति और जीवन में त्याग की पराकाष्ठा का मिला जुला स्वरूप देखने को मिलता है।

लेकिन यह प्रश्न हर संवेदनशील मन को जरुर कचोटता है—

क्या यही फल है साहित्य और सेवा भाव का? एक ऐसा जीवन जिसे शारीरिक विवशताओं से लड़ते हुए भी आगे बढ़ने के साथ औरों को भी प्रेरित कर आगे बढ़ाने की भावनाओं की भूख है, अर्थाभाव, संसाधनों की कमी के बाद संघर्ष और त्याग का इतिहास।

यमराज मित्र सुधीर जी का जीवन हमें सिखाता है कि साहित्य केवल शब्दों का खेल नहीं, बल्कि आत्मा की साधना है। सेवा केवल दिखावा नहीं, बल्कि भीतर की सच्चाई है। और शायद यही वजह है कि उन्हें देखकर मन रो पड़ता है—क्योंकि वे हमें आईना दिखाते हैं कि समाज कितनी जल्दी अपने असली सेवकों को भूल जाता है।

आज जरूरत है कि हम/आप सुधीर श्रीवास्तव जी के इस अमूल्य योगदान को समझें, उन्हें सम्मान दें और उनके संघर्षों का बोझ बाँटें। वरना आने वाली पीढ़ियाँ हमसे यह सवाल जरूर पूछेंगी—

“जब एक सच्चे साहित्यकार को आपकी सबसे अधिक जरुरत थी, जिसने हमारे आपके लिए जो किया, विशेष रूप से नवोदित, अनुभव हीन, संकोची और डरे हुए कलमकारों के लिए निस्वार्थ संबल, प्रेरणा, मार्गदर्शन और प्लेटफ़ॉर्म तक पहुंचाने का सतत प्रयास जिम्मेदारी मान कर करता रहा, तब तुम कहाँ थे?

गोण्डा (उत्तर प्रदेश) की माटी में जन्मे ऐसे विराट व्यक्तित्व, कलमकार, जो खुद को अकिंचन, अज्ञानी और सबसे निचले स्तर का कलमकार मानता हो, लेकिन जो निस्वार्थ भाव से औरों को कुछ देकर निखारने की लगातार कोशिशें जारी रखे हुए हो, जिसके बारे में कुछ कहने के लिए शब्दों की भावाभिव्यक्ति आसान नहीं है। लेकिन वे अपने जीवन को जिस सूत्र में पिरोकर चलने का सतत प्रयास कर रहे हैं – कि ‘नेकी कर दरिया में डाल’, वह अपने आप उनके जीवन दर्शन का बोध कराता है।

ऐसे मनीषी, सरल, सहज व्यक्तित्व को बारंबार प्रणाम के साथ ईश्वर से उनके स्वस्थ और दीर्घायु जीवन की कामना के साथ…..।

 

कुलदीप सिंह रुहेला

सहारनपुर उत्तर प्रदेश